मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

जब मालवीय जी ने फेंक कर मारी गयी नवाब की जूती ही नीलाम कर दी !

सन 2007 की बात है।  देहरादून से साइडस्टोरी पत्रिका का मासिक प्रकाशन चल रहा था। अक्सर खाली समय में और वैसे भी नॉटियल जी पास जाना होता था।  एक बार मैं जैसे ही उनके घर पहुंचा ,वह कहीं से आये थे।  बोले आज २५ दिसंबर है..  हम लोग जो बीएचयू से पढ़े हुए  हैं अपने काम धाम से निपट आये हैं ,हर साल २५ दिस्मबर को महामना मदन मोहन मालवीय जी की जयंती मनाते हैं। आज मैंने भी उसमें भाषण दिया और अपने संस्मरण सुनाये।  आपको लिखाकर दूंगा ,अपनी पत्रिका में छापिएगा।  बस एक दो दिन बाद नौटियाल जी का फोन आया बोले -आज आपको चाय  पीनी  है मैंने बोला दस मिनट में हाजिर हुआ।  तब यह स्मृतियाँ उन्होंने सुनाई और  मैं नोट करता गया।  फिर लेखबद्ध करने के बाद उनके ही पास छोड़ दीं की वे उसे एक बार देख लें ,जो चाहे सुधार कर सकें।   वही स्मृतियाँ  अभी थोड़े दिन पहले मेरे कागज़ों में निकल आयीं।   -आशीष अग्रवाल 
(25 दिसंबर  पंडित  मदनमोहन मालवीय के जन्मदिवस के अवसर पर)
महान साहित्यकार पूर्व विधायक स्व. विद्या सागर नौटियाल 
मालवीय जी हम सबके कुलपिता थे । यह बात करीब करीब सभी पूर्ववक्ताओं ने स्वीकार की  है कि आज वे जो कुछ हैं, जीवन में उन्होंने जो भी उपलब्धियाँ हासिल की हैं उनके पीछे मात्र मालवीय जी की कृपा रही है । मैं जब-जब मालवीयजी के बारे में विचार करता हूँ, मुझे रूलाई आने लगती है । रूलाई यह सोच कर कि कि मेरे जैसे अकिंचन अनगढ़ नौजवानों को इंसान के रूप में ढालने के लिए हमारी सदी के महानतम व्यक्ति को कितने कष्ट सहन करने पड़े । एक नए ढंग के विश्वविद्यालय का निर्माण करने के लिए वे अपना सर्वस्व  छोड़ कर दृढ़प्रतिज्ञ होकर घर से निकल पड़े थे । और किस तरह स्वेत धवल वस्त्रों में हाथ में खप्पर लेकर  पूरे  भारत के कोने कोने में विचरण करने लगे थे । एक एक कर इस देश के तमाम सामर्थ्यवान  और अकिंचन व्यक्तियों के सामने हाथ पसारने लगते थे। कुछ लोग सहर्ष दान देते थे ,अपनी सामर्थ्य  के अनुसार। कुछ लोग अपनी सीमाओं का उल्लंघन करते हुए भी । और कुछ ऐसे भी लोग होते थे जो अपनी टेंट ढीली कर एक दमड़ी देने के बजाय उन्हें दुत्कारने तिरस्कृत करने लगते थे । उन सामर्थ्यवान हस्तियों के द्वारा सरे आम अपमानित किए जाने के बावजूद मालवीयजी महाराज किंचित् चिचलित नहीं होते थे । इस मौके पर मुझे एक घटना की अचानक याद आ रही है ।
 क बार मालवीय जी किसी तरह एक रिसायत के नवाब के दरबार में जा पहुँचे । नवाब उन्हें देखते ही गुस्से में भर गए और  उनके हाजिर होने का मकसद पूछा । यह पता लगने पर कि वे काशी  हिंदू विष्वविद्यालय की स्थापना करने के लिए कुछ आर्थिक अनुदान की याचना कर रहे  हैं नवाब ने अपने पाँव से जूती निकाली और उनकी ओर फेंक दी । कहा हमारी ओर से यही दान है । मालवीयजी ने भरे दरबार में उछाली गई जूती बहुत शांत भाव से जमीन से उठा कर अपने हाथ में ले ली और आदरपूर्वक उसे एक कपड़े में लपेट लिया । जूती को लेकर वे दरबार की सीमाओं से बाहर निकल आए । तब मालवीयजी आम प्रजा के बीच हर नुक्कड़ च राहे पर इस बात का ऐलान करने लगे कि कल दिन के मौके पर नवाब साहब के पाँव से उतारी गई जूती की सरेआम नीलामी की जाएगी । लपेटी गई उस जूती के कपड़े को भी वे लोगों को दिखाने लगते कि इसके अंदर जूती है जिसे  हुजूर ने खुद अपने हाथ से उतार कर हमें देने की मेहरबानी बख्षी  है। ष्कल नवाब हुजूर की यह जूती नीलाम किया जाएगा। नवाब तक भी यह खबर पहुँची । अपनी भूल के लिए माफी माँगते हुए उसने मालवीयजी महाराज को अपनी ओर से समुचित दान देकर आदरपूर्वक विदा किया ।
पने क्या कभी इस बात की कल्पना की है कि भारत की गुलामी के उस अंधकारपूर्ण युग में यह कैसे संभव कैसे हुआ कि बी0एच0यू0 में सिर्फ इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं खोला गया बल्कि तकनीकी विज्ञानों की कुल शाखाओं उपशाखाओं  की भी स्थापना कर दी गई। हमारे कुलपिता भविष्यदृष्टा थे ।  वे देख रहे थे कि एक न एक दिन अंग्रेज को भारत छोड़ कर  जाना ही पड़ेगा । वे बी0एच0यू0 में लगातार उसशुभ दिन की तैयारी करते रहते  थे। उन्होंने इंजीनियािंग की तीनों शाखाओं,सिविल  मैकेनिकल और इलैक्ट्रिकल की शिक्षा की व्यवस्था के लिए इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना की जिसे बनारस इंजीनियरिंग कॉलेजद्ध कहते हैं । और उसके अलावा कॉलज ऑफ़ टेक्नोलॉजी भी खोल दिया  जिसमें  उस  पिछड़े  दौर में ग्लास  और सिरेमिक्स जैसे विषयों के अध्ययन की व्यवस्था भी कर दी गई थी । और सिर्फ उतना ही नहीं , माइनिंग मेटलर्जी जैसे विषय की शिक्षा   के बारे में उस ज़माने में कोई सोच भी नहीं सकता था । मालवीयजी महाराज ने एक अलग कॉलेज की स्थापना मात्र उसी विषय  के लिए कर दी थी । कृषि के क्षेत्र में देश  पीछे न रहे, इसके लिए कॉलेज ऑफ़ ऐग्रीकल्चर भी खोला गया । डा0शांति स्वरुप भटनागर ने कुलगीत की रचना करते हुए उन समस्त विषयों का समावेश  करने की कोशिश की ।

मालवीयजी को जानकारी  रहती थी कि विदेशों में भारत के कौन कौन  नवयुवक  कहाँ  अध्ययन करने गए  हैं। तब वायुयान चलते नहीं थे । कुल विदेश यात्राएं समुद्री जहाजों से ही हुआ करती थीं । वर्षों के बाद कोई नवयुवक विदेष से अध्ययन करके लौट रहा है । कस्टम क्लियरेंस के बाद वह अपने सामान असबाब के साथ गोदी पर बाहर निकला है । पगड़ी लगाएश्वेत  वस्त्रधारी मदनमोहन मालवीय उसे आशीर्वाद दे रहे हैं । 'कहाँ जाओगे वत्स ? घर  जाऊँगा महाराज ।मैं तुम्हें लिवा लाने आया हूँ बेटा । तुम पहले मेरे साथ बनारस चलो ।अब कहिए ! मदनमोहन मालवीय जिसे स्वयं लिवा लाने आए हैं उस नौजवान की जुर्रत कि कोई बहानेबाजी कर उनके साथ चलने से मना कर दे वह चुपचाप साथ हो लेता है।अपनी मंजिल पर पहुँचने से पहले उसकी यात्रा में एक पड़ाव और बढ़ गया है । बम्बई से बनारस ।
बी0एच0यू0 के किसी कमरे के अंदर सेलेक्शन  कमेटी की मीटिंग चल रही है । बम्बई से मालवीय जी विदेश  यात्रा से भारत लौटे जिस नवयुवक को अपने साथ बनारस लिवा लाए  वह उस कमरे के बाहर एक बेंच पर बैठा है । बम्बई से बनारस के लिए प्रस्थान करने से पूर्व मालवीयजी ने तार द्वारा यह निर्देश  भेज दिया था कि सेलेक्शन  कमेटी की बैठक बुलाई जाय । कुछ ही देर के बाद  बाहर बैठे विद्वान के हाथ में एक नियुक्ति पत्र  थमा दिया जाता है । तुम कल ज्वाइन कर लो और फिर दो एक  दिनों के बाद छुट्टी लेकर अपने घर चले जाना ।
नवयुवक वैज्ञानिक के नियुक्तिपत्र  में जो वेतन मान लिखा गया है  वह किसी डिग्री कॉलेज के लेक्चरर के वेतनमान से भो कम है ।नवयुवक के घर पहुँचते ही परिवार के तमाम सदस्य सकते में आ गए हैं । परिवार के मुखिया ने अगले ही दिन बनारस का टिकट कटवा लिया है ।
हाराज ! हमारे साथ न्याय किया जाय । हमारा कुनबा बर्बाद हो जाएगा ।आपके बेटे को देशसेवा करने का स्वर्णिम अवसर मिल रहा है मित्र ! महाराज  इनका  का खर्चा उठाने की हमारी अकेली की हिम्मत नहीं थी । हम दुस्साहस कर बैठे । इनकी शीसखा  के लिए हमने खुद को अपनेरिश्तेदारों  का भी बंधक बनवा दिया ।मातापिता  की सेवा करने के अतिरिक्त पुत्र को गुरुऋण भी देना होता है मित्र। हम गुरुदक्षिणा के रूप में आपसे समाजसेवा की याचना कर रहे हैं । हम उसे कोई वेतन नहीं दे रहे हैं मात्र जीवन निर्वाह व्यय की व्यवस्था कर सकते हैं ।चिरंजीव के पिता मुँह लटकाए घर लौट आए हैं ।
ह मात्र एक उदाहरण है ! मालवीय जी पूरे देश  के वैज्ञानिकों ्रविशेषज्ञों,उद्भट विद्वानों को अपनी अद्भुत चमक से ऐसे ही बी0एच0यू0 में खींच लाते थे हमारे । मदनमोहन मालवीय के रूप में काशी  में एक ऐसा चुम्बक स्थापित हो गया था कि देश  भर के विद्वान उन की ओर खुद ही खिंचे चले आते थे । धन कमाने की लालसा से नहीं   ज्ञान विज्ञान की उपलब्धियों के द्वारा  इस देश  की सेवा करने का व्रत अपने हृदय में धारण किए हुए  । डा0 विजय गैरोला , हमारे अध्यक्ष कर्नल के0एन0राय और दूसरे वक्ताओं ने महामना और बी0एचच0यू0 के बारे में अपने संस्मरण आपको सुनाए हैं । विजय का जन्म बी0एच0यू0 में हुआ था। वे प्रो0 शशिशेखरानन्  गैरोला के पुत्र हैं । इसलिए उनके संस्मरणों की ताजग़ी निराली थी । मैं उन्हें दुहराऊँगा नहीं । इस वक्त मुझे एक दूसरा प्रसंग याद आ रहा है । 
लकत्ता काँग्रेस अधिवेश न में एक उत्साही नवयुवक रूस्तम सैटिन को स्वयंसेवक के रूप में काम करते हुए देख महामना का ध्यान उसकी ओरआकर्षित हुआ । अधिवेश न की समाप्ति के बाद महामना ने उसके बारे में जानकारी लेनी चाही । मालूम हुआ कि बम्बई में सैटिन की कोठी के ख्याति प्राप्त मालिक रूस्तम के पारसी पिता ने बेटे के काँग्रेसी कार्यक्रमों में सम्मिलित होने के अपराध में घबड़ा कर उन्हें घर से निकाल दिया है। अंग्रेज सरकार के विरोध करने की बात व्यवसायी  धनाढ्य पिता सोच भी नहीं सकते थे । उन्हें अपना व्यापार, पुत्र से अधिक महत्वपूर्ण और प्रिय लगता था । कुछ ही दिनों बाद कलकत्ता  में काँग्रेस काअधिवेशन होने जा रहा था । घर से निकाल दिए जाने के बाद रूस्तम अधिवेशन में स्वयंसेवक बन कर  चले गए ।अधिवेषन तो खत्म हो गया है । अब कहाँ जाआगे बेटे? मालवीय जजी ने पूछा यह तो अभी सोचा नहीं है । उधर से मायूस सा जवाब आया !
तुम मेरे  साथ चलो बेटे । तुम्हें पहले अपनी शिक्षा  पूरी करनी चाहिए ।
हामना की बात सुन कर रूस्तम कुछ सोच में पड़ गए ।तुम चिंता मत करो बेटे ।विश्वविद्यालय  में तुम्हें कोई खर्चा नहीं करना पड़ेगा ।कोई फीस नहीं । कमरे का कोई किराया नहीं । ऊपर से छात्रवृत्ति ,जिससे जेबखर्च निकल आएगा।   वे रूस्तम सैटिन कम्युनिस्ट थे । मालवीय जी को उस बात की भी जानकारी थी । अनीश्वरवादी  । पूँजीवादी प्रथा और  ज़मींदारों के घोषित दुश्मन । और महामना के एक प्रिय पुत्र और कृपापात्र । एक दिन  रूस्तम ने कभी मुझे यह बात सुनाई थी , जिसे मैं मैंने आपके सामने बयान किया।  एक दिन रूस्तम महामना को बी0एच0यू0 के निर्माण में  पूँजीपतियों राजा नवाब , ज़मींदारों  और उनके सहयोग के बारे में अपने कागजी ज्ञान का उच्छवास सुनाने लगे ।
पिता जी ! ये राजे नवाब  अपनी रियासतों की प्रजा को उत्पीडि़त कर हराम की कमाई करते रहते हैं । गरीबों को सता सत्ता  कर अपनी तिजोरियाँ भरते रहते है । उस कमाई की बदौलत वे ऐशोआराम करते हैं । वह पैसा उनके दर्व्यसनो  पर खर्च होता है । दुखी प्रजा को सता कर उनसे जबरन वसूल किए गए उस हराम के पैसे से ही तो आपने विश्वविद्यालय  की स्थापना की है। हाँ रूस्तम ! यह गलती मुझसे हो ही गई । वे उस पैसे को अपने ऐशोआराम दुर्व्यसनों पर उड़ा देते, मैं उसे माँग कर तुम लोगों के लिए लेता आया ।महामना द्वारा निजी मान अपमान  की परवाह न कर मांग मांग  कर लाई गई उन्हीं धनराशियों  के सहारे बी0एच0यू0 के काम चलते रहे । भयंकर आर्थिक तंगी के बावजूद उदारमना महामना अपने कुलपुत्रों को हर संकट से उबारने में व्यस्त रहते थे । उनकी उदारता के फलस्वरूप गऱीब झोपडिय़ों के अनेक  साधनहीन निहंग छात्र भी  विश्वविद्यालय तक  जा सके.  । 
सी बीच एक परेशान छात्र ने महामना से अपनी परेशानी बयान की है ।फीस का भुगतान किए बग़ैर हमें  परीक्षा  से रोका जा रहा है ।उसका बयान सुन कर महामना द्रवित हो गए हैं । उन्होंने सेंट्रल आफिस के लिए लिख कर दे दिया है ।इस छात्र को परीक्षा से न रोका जाय । यह  फीस इम्तहान के बाद दे देगा । आदेश  को देख कर सेंट्रल ऑफिस परेशानी  में पड़ गया है ।यही की परीक्षा के बाद आज तक किसी ने फीस दी भी है भला ?परीक्षा के बाद अपने ज्ञान के आधार पर देश  की सेचा करके वह निर्धन छात्र आजीवन फीस अदा करता रहेगा।  महामना के इस विशाल दर्शन को  इस बात को सेंट्रल आफिस नहीं जान सकता था, अपने अन्तर्मन में महामना जानते थे । अगर कोई निर्धन छात्र धन के अभाव में फाइनल परीक्षा से ही  वंचित कर दिया जाएगा तो बी0एच0यू0 किसके लिए बनाया गया है घ्
मेरा मानना था की  मालवीयजी एक अलग किस्म का निराला विश्वविद्यालय  खोलना चाहते थे । उनके हृदय में देश  की आज़ादी की ललक थी । वे बी0एच0यू0 से प्रतिवर्ष गुलामी की व्यवस्था को अक्षुण्ण रखने वाले  स्नातकों की भीड़ नहीं निकालना चाहते थे । उनकी हार्दिक तमन्ना यह रहती थी कि बी0एच0यू0 के स्नातक, समाज में पहुँचकर अपनी क्षमताओं का उपयोगदेश सेवा के कार्यों में लगें । यहाँ पर आपके सामने इस बात का अंतर  स्पष्ट हो जाएगा कि बी0एच0यू0 के अधिकांश  छात्र सिविल सर्विसेज़ की ओर क्यों नहीं लपकते थे । अंग्रेजी भारत में जिनका रूझान प्रतियोगिता परीक्षाओं की ओर होता था वे प्रयाग विष्वविद्यालय में दाखिला ले लेते थे । बी0एच0यू0 में दूसरी किस्म के छात्रों को तैयार किया जा रहा था । उसका पता उस दिन लगा जब भारत की स्वतंत्रता की शुभ बेला आ पहुँची । देश  में मौजूद तमाम  विद्युतगृहों  से लेकर प्रतिष्ठानों तक के शीर्ष  पदों से अंग्रेज ऑफीसर इंजीनियर और तकनीकी अधिकारी हटते चले गए और उनके खाली स्थानों पर बी0एच0यू0 के स्नातक तैनात हो गए । अपने समस्त प्रतिष्ठानों के चक्कों को पूर्ववत् चलता  देख देश  के अंदर एक नया आत्मविष्वास जाग उठा । ये थी मालवीयजी की देशभक्ति , ये उनका साहस ये उनकी शक्ति  ।बरबस ही एक बार फिर कुलगीत याद करें!
मैं देख रहा हूँ कि देहरादून के निवास कर रहे हमारे पूर्व छात्रों में आज यहाँ पर काफी लोग नहीं आ पाए हैं ।  मुझे विशवास  है कि अगले समारोह के अवसर पर हमारी संख्या में पर्याप्त वृद्धि हो जाएगी । हिंदू नेनेशनल  इंटर कॉलेज देहरादून के प्रति हमें यहाँ पर एकत्र होने की अनुमति देने के अवसर  और सुविधा  प्रदान करने के लिए मैं अपनी ओर से भी कृतज्ञता ज्ञापित करता  हूँ ।

मंगलवार, 19 नवंबर 2019

भारत में विश्व का तीसरा सबसे बड़ा शिक्षा तंत्र : डॉ.रमेश पोखरियाल ‘निशंक’


संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक संगठन में भाषण देते हुए श्री निशंक 
मुझे लगता है कि हमें अपने छात्रों को यह सिखाना होगा कि स्थिरता केवल पर्यावरण के बारे में ही नहीं है बल्कि हमें समग्र विकास के विषय में सोचना है। एक समाज के रूप में, एक राष्‍ट्र के रूप में हमारे कार्यों से प्रकृति के साथ सामंजस्य कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इस बारे में हमारे मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले किसी भी प्रश्न का उत्तर हर कीमत पर ढूंढना ही है
साथ में यह भी पढ़ें ---https://sidestoryhindi.blogspot.com/2009/06/2002.htm 
  सदियों  पुरानी अजर अमर भारतीय संस्कृति ने संपूर्ण विश्व को परिवार माना है।" अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्| उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्|| " संपूर्ण  दुनिया  में  वसुधैव  कुटुंबकम का महान विचार लेकर भारत देश ने सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया: की परिकल्पना को  साकार करते हुए संपूर्ण मानवता के कल्याण की कामना ही की  है। हमारा चिंतन, हमारे दर्शन और हमारे मूल्‍यों में एक ही भावना परि‍लक्षित होती है कि संसार में कोई कष्ट में न रहे। एकात्म मानववाद का चिंतन कर हम ने समाज में अंतिम छोर के व्यक्ति तक पहुंचने का संकल्प लिया है l पिछड़े, दलित, उपेक्षा वर्ग तक पहुंचना हमारी सर्वोच्‍च प्राथमिकता है। भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने संयुक्त राष्ट्र के 74वें सम्मेलन में सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास अर्जित करने की बात की। यह मंत्र न केवल भारत के लिए अपितु विश्‍व कल्याण के लिए आवश्यक है।l
युनेस्को की साधारण सभा को सम्बोधित करते हुए श्री निशंक 

विश्व बंधुत्व,  सामाजिक समरसता, सौहार्द, परोपकार, सहिष्‍णुता,  प्रेम की  भावना को हम शिक्षा के माध्यम से आगे बढ़ाने और पुष्पित पल्लवित करने में सक्षम हैं।l शिक्षा ही वह के माध्यम है जिससे हम समग्र विकास की परिकल्पना को साकार कर सकते हैं। विश्‍व के शीर्ष पर रहने का श्रेय हमें शिक्षा के माध्‍यम से ही मिला। विश्‍व गुरू भारत पुरातन काल में ज्ञान और विज्ञान का नेतृत्‍व केवल इसलिए प्रदान कर पाया क्‍योंकि उसकी शिक्षा सर्वोत्‍कृष्‍ट और मूल्‍यों पर आधारित थी। नालंदा, विक्रमशिला, वल्लभी विश्व विद्यालय दुनिया के विभिन्न हिस्सों से छात्रों और विद्वानों केआकर्षण का केंद्र रहा है। सदैव से ही भारत अपनी मूल्यपरक शिक्षा द्वारा वैश्विक कल्याण के साँझा उद्देश्यों को साकार करने के लिए अंतर्राष्‍ट्रीय समुदाय के साथ एक  सकारात्मक और रचनात्मक भूमिका निभाता रहा है। आज के चुनौतीपूर्ण वातावरण में भारत विश्व के तीसरे बड़ा शिक्षा तंत्र होने के नाते 33करोड़ से ज्यादा विद्यार्थियों के उज्जवल भविष्य निर्माण के लिए कृतसंकल्पित हैं । देश में 1000 से ज्यादा विश्व विद्यालय हैं 45000 से ज्यादा डिग्री कॉलेज के साथ ही विश्व का सबसे युवा देश है जनसंख्याकि लाभांश के चलते वर्ष 2055  तक काम करने वाले लोगों की सर्वाधिक संख्या भारत में होगी। 

तत विकास के स्थिरता के तीन स्तंभ आर्थिक विकास, सामाजिक विकास और पर्यावरण संरक्षण स्थिरता और स्थायी विकास उस विकास संतुलित करने पर केंद्रित है। मुझे लगता है कि हमें अपने छात्रों को यह सिखाना होगा कि स्थिरता केवल पर्यावरण के बारे में ही नहीं है बल्कि हमें समग्र विकास के विषय में सोचना है। एक समाज के रूप में, एक राष्‍ट्र के रूप में हमारे कार्यों से प्रकृति के साथ सामंजस्य कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इस बारे में हमारे मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले किसी भी प्रश्न का उत्तर होने हर कीमत पर ढूंढना ही है। प्रश्न का उत्‍तर ढूंढना है। "स्थिरता" की परिभाषा से अपने विद्यार्थियों को अवगत कराना हमारी सर्वोच्‍च प्राथमिकता है। यही कारण था कि जहां हमने अपने परिसरों में सिंगल यूज प्‍लास्टिक पर प्रतिबंध लगाया है वहीं एक पेड़ एक छात्र अभियान चलाकर अपने परिसरों को हरित परिसर बनाने का प्रयास किया है।

म शिक्षा, विज्ञान, पर्यावरण और संस्कृति के क्षेत्र में अंतर्राष्‍ट्रीय सहयोग के माध्यम से शांति  के निर्माण के अपने मूल जनादेश को आगे बढ़ाने के लिए कृतसंकल्पित हैं। मुझे लगता है कि युगों युगों से चली आ रही हमारी शिक्षा पद्धति हमारा दर्शन,  हमारा  चिंतन और हमारा भाव सब कुछ मानवता के कल्याण के लिए केंद्रित रहता है। "असतो मा सदगमय:  असत्य से सत्य की ओर एवं तमसो मा  ज्योर्तिगमय: अंधकार  से प्रकाश की ओर प्राणी मात्र को ले जाने के लिए हम संकल्पित हैं।
मारा लक्ष्य है कि प्रत्येक बच्चे और नागरिक को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा प्राप्त हो । हम समग्र शिक्षा के माध्यम से, शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 को लागू कर समस्त भारत में बच्चों तक शिक्षा पहुँचाने का उल्‍लेखनीय कार्य किया हैI 33 वर्षों के अंतराल में हम देश के शैक्षिक क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन करने वाली नयी शिक्षा नीति लाने के लिए कृत संकल्पित हैं। हमारी नयी शिक्षा नीति गुणवत्तापरक,  रोजगारपरक,  नवचारयुक्त,  कौशलयुक्त,  सामाजिक सरोकारों से युक्त,  व्यावहारिक,  शोधपरक,  पर्यावरण की रक्षा  क्षेत्र में उल्लेखनीय रहेगी। नई शिक्षा नीति विश्व का सर्वाधिक बड़ा विमर्श मुक्त नवाचार के रूप में हुआl  भारत विश्व की सबसे बड़े सार्वजनिक लोकतांत्रिक परामर्श अभियान से,  नई शिक्षा नीति को कार्य रूप देने की ओर गतिशील है। लगभग सवा दो लाख लोगों के सुझावों इस बात का परिचायक है कि हमने शिक्षा नीति को अंतिम रूप देने के लिए सभी हितधारकों तक पहुंचने का प्रयास किया है। विद्यार्थी, अध्‍यापक, विद्यालय प्रबंधन, प्रशासक, नीति निर्माता, जनप्रतिनिधि एवं गैर सरकारी संगठनों समेत हमने हर वर्ग तक पहुचने में सफलता पायी है।
राष्ट्रीय नीति जिस का मसौदा तैयार है वह सतत विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल साबित होगी| हमारा लक्ष्य है किआधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग कर शिक्षा को नवाचार युक्त गुणवत्ता परक बनाया जाए। भारत उच्च शिक्षा नीति को गुणात्मक एवं वहनीय बनाने के लिए दृढ़ संकल्पित है। स्वयं पोर्टल के माध्यम से हम भारत के ही नहीं, बल्कि विदेशी छात्रों को भी निशुल्क उच्च शिक्षा देने के लिए प्रयासरत हैं ।यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि भारत के ही 12.3 मिलीयन छात्र स्वयं पोर्टल के तहत शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। विज्ञान भारती एवं 'आरोग्यभारती' के माध्यम से हम ज्ञान के भंडार को निशुल्क बांटने  के लिए प्रतिबद्ध हैं। अफ्रीकन राष्ट्रों के साथ हमारा इस संबंध में समझौता हो चुका है।

मारी योजना है जिसके तहत समूचे विश्व के छात्र भारत में उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। स्टडी इन इंडिया प्रोग्राम के तहत भारतकी 100 से ज्यादा सर्वोत्तम शिक्षण संस्थाएं विश्व भर में छात्रों के लिए आकर्षक गंतव्य स्थल के रूप में उपलब्ध हैं |

शिक्षा के माध्‍यम से अपनी सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देने और विश्व धरोहर स्थलों के संरक्षण के लिए विद्यार्थियों को जागरूक करना हमारी प्राथमिकता है। भाषा राष्‍ट्र की अभिव्‍यक्ति है और भाषा के बगैर राष्‍ट्र गूंगा है। भाषा के महत्‍व को समझते हुए नई नीति के माध्‍यम से हम देश की हिंदी, संस्कृत सहित सभी भारतीय भाषाओं को संरक्षित, पुष्पित एवं पल्लवित करने में जुटे हैं। l
भारत विज्ञान और प्रौद्योगिकी की मदद से संयुक्‍त राष्‍ट्र के सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कटिबद्ध है। इस संदर्भ में भारत के माननीय यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने 103वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस में ' इंडिया टेक्नोलॉजी विजन 2035' का अनावरण किया हैमानव सभ्यता हमारे आधुनिक जीवन शैली को बनाए रखने के लिए संसाधनों का उपयोग करती है। 
मानव इतिहास में अनगिनत उदाहरण हैं जहां सभ्‍यता ने विकास हेतु पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया है। हमें क्षति और विनाश से बचाते हुए इस बात को ध्यान में रखना है कि हम प्राकृतिक दुनिया के साथ कैसे तालमेल बिठा सकते हैं। ब्रिटिश काल के दौरान शुरू हुई मूल्‍यों की गिरावट का लम्‍बे समय तक निरंतर क्षरण होता रहा। यह हमारा सौभाग्‍य रहा कि स्‍वामी विवेकानंद, महात्‍मा गॉंधी, सुभाष चन्‍द्र बोस सरीखे सिद्धांतों और मूल्य युक्‍त नेतृत्‍व ने हमारा मार्गदर्शन किया। उन्होंने सत्य और अहिंसा के अपने शक्तिशाली मूल्यों के साथ भारत को अपनी ताकत वापस पाने में मदद की। आजादी के 70 वर्षों के बाद प्रभावी प्रबंधन और अस्तित्व के लिए इन मूल्यों पर वापस जाने की आवश्यकता है। 
मय-परीक्षणित मूल्यों को पुनर्जीवित करने और सत्य, अहिंसा, त्याग, विनम्रता, समानता आदि जैसे मूल्य इस अशांत परिदृश्य में आशा की नई किरण जगाते हैं।मानवता के लिए शिक्षा को संयुक्त रूप से बदलने के लिए अंतर्राष्‍ट्रीय साझेदारी की अनूठी पहल को साकार करने के लिए एवं मानवता के लिए शिक्षा को संयुक्त रूप से बदलने के लिए मैं वैश्विक साझेदारी की आशा करता हूं। आज हम परिवार के अंदर बंट गए हैं, खुद को कंप्यूटर तक सीमित कर लिया है और स्मार्टफोन को अपनी दुनिया बना ली है. इन जंजीरों से निकलने में बापू के विचार हमारे लिए मददगार साबित हो सकते हैं
आज के युग में भारत  इस तरह की पहल शिक्षा, संस्कृति, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, जल और स्वच्छता के क्षेत्र में अन्य देशों के साथ मिलकर करना चाहता है। मैं सभी सम्मानित देशो से अनुरोध करता हूं कि हम सब मिलकर के सतत विकास लक्ष्यों को पूरा करे | वैसे भी हमारे ग्रन्‍थों में कहा गया है कि 
माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्यासंपूर्ण धरा को हमने माँ के समान माना है उसको सुरक्षित और संरक्षित करने हेतु हम हमेशा संकल्पित रहेंगे।l

भारत सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री एवं सुप्रसिसष साहित्यकार कवि डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’द्वारा हाल ही में UNESCO में दिए गए भाषण के अंशों पर आधारित 
-आशीष अग्रवाल 

रविवार, 30 जून 2019

आपातकाल : जब नरेंद्र मोदी ने बड़ौदा जेल मे अखबार पहुंचाया !


वर्तमान केंद्र की नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने अपने कार्यकाल के पहले ही वर्ष में सबसे पहले आपातकाल के उन बडियों को सम्मानित किया ,जो लोकतंत्र की खातिर जेल गए।  

" रूंधे गले से माँ ने पिताजी को बताया कि शायद यह आखिरी मुलाकात है क्योंकि इन्दिरा गाँधी चुनाव जीत रहीं है और फिर जार्ज फर्नांडिस तथा पिताजी को फाँसी हो जाएगी। ये दोनों व्यक्ति नम्बर एक और दो पर नामित अभियुक्त थे। पिताजी हंसे और बोले कि कांग्रेस को सूपड़ा हिन्दी भाषी प्रदेशों में साफ हो रहा है। राज नारायण जी (Raj Narain) रायबरेली से जीतने जा रहे हैं। जनता पार्टी की सरकार बनेगी। जेल के भीतर पिताजी को लोकमानस की सही सूचना थी बजाय बाहर रहकर माँ को। फिर चुनाव परिणाम आयें। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। उनकी काबीना का प्रथम निर्णय था कि बड़ौदा डायनामाइट केस वापस ले लिया जाय। "
के विश्वदेव राव 
मगर यह दुःख शीघ्र दूर हो गया जब एक युवक रोज पिताजी के लिए अखबारों का बण्डल पहुँचाता था| जिसे तरस खाकर जेलर साहब पिताजी के बैरक में पहुँचा देते थे। वह युवक था- नरेन्द्र दामोदरदास मोदी, अधुना गुजरात के मुख्य मंत्री (आज भारत के प्रधानमंत्री),आखिर स्वयं त्रिपाठी जी तथा मेरे दादाजी (नेहरू के नेशनल हेरल्ड के संस्थापक-सम्पादक) स्व. के. रामा राव भी (1942) में जेल गये थे। उनके परिवार को ब्रिटिश राज ने कभी परेशान नहीं किया था। इस पर रेल मंत्री ने दिल्ली के एक पत्रकार-प्रतिनिधि मंडल से कहा कि वे असहाय थे। “ऊपर से आदेश आया था। 
न दिनों (1976-77) दिल्ली की तिहाड़ जेल के वार्ड सत्रह में पिताजी नजरबन्द थे,जार्ज फर्नांडिस तथा 23अन्य के साथ। सीबीआई. की चार्जशीट में लगी धाराओं के अनुसार उन्हें सजाए-मौत देने की सिफ़ारिश की गई थी। यह मेरे जन्म (22 मार्च 1978) के चन्द महीनों पहले की बात है। बड़े भाई  सुदेव राव  दीदी विनीता और माँ से और रिहा होने के बाद पिता जी से आपातकाल के किस्से सुनता आया था। 
ड़ौदा सेन्ट्रल जेल में पिताजी के साथ पाँच कैदी थे ,जिन्हें तन्हा कोठरी में बेड़ियों के साथ दो ताले लगाकर अलग-अलग बन्द किया जाता था। इन नब्बे वर्ग फिटवाली कोठरियों का निर्माण महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने 1876 में फांसी के सजायाफ्ता अपराधियों के लिए किया था। कुछ महीनों बाद इन कैदियों को बड़ौदा से दिल्ली के तिहाड़ जेल में ले जाया गया। वहाँ नौ राज्यों में गिरफ्तार किये गये डायनामाइट केस के अन्य अभियुक्तों को भी साथ रखा गया था। 
क साहसी संवाददाता के नाते पिताजी ने अभिव्यक्ति की आज़ादी के दमन के विरूद्ध अभियान चलाया था। इंडियन फेडरेशन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट्स के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष (पुणे सम्मेलन, 1973 में) वे चुने गये थे। अतः प्रेस सेंसरशिप (25 जून 1975) लागू होते ही संघर्ष शुरू कर दिया था। फेडरेशन की राष्ट्रीय परिषद के बंगलूर अधिवेशन (फरवरी 1976) में इन्दिरा गाँधी शासन की तानाशाही की भर्त्सना वाला प्रस्ताव उन्होंने बहुमत से पारित कराया। इसके चन्द दिनों बाद ही (19 मार्च 1976) गुजरात पुलिस ने पिताजी को कैद कर लिया। और तभी अखबारी आज़ादी के अनन्य समर्थक टाइम्स ऑफ़ इंडिया के प्रधान संपादक शाम लाल तथा सम्पादक गिरिलाल जैन ने बड़ौदा जेल में पिताजी के निलम्बन का आदेश (अप्रैल 1976), फिर दिल्ली जेल में (अक्टूबर 1976) बरखास्तगी का आदेश भिजवा दिया। इतनी त्वरित गति से काम किया कि सत्ता पर सवार लोग प्रभावित हो गये थे। 
स बीच हमारे परिवार पर क्या गुजरी यह दर्दभरी दास्तां है। मेरी माँ (डा. सुधा) का बड़ौदा मंडलीय रेलवे अस्पताल से पाकिस्तान के सीमावर्ती गाँधीधाम (कच्छ) रेगिस्तानी इलाके में तबादला कर दिया गया। वे राजपत्रित रेल अधिकारी थीं। परिवार बिखर गया। पिताजी ने जेल से ही स्वाधीनता सेनानी और संपादक रहे रेलमंत्री पंडित कमलापति त्रिपाठी को विरोध-पत्र लिखा कि अंग्रेजों ने भी कभी किसी स्वाद्दीनता सेनानी के परिवार को तंग नहीं किया, तो फिर कांग्रेस सरकार की ऐसी अमानवीय नीति क्यों? आखिर स्वयं त्रिपाठी जी तथा मेरे दादाजी (नेहरू के नेशनल हेरल्ड के संस्थापक-सम्पादक)    स्व. के. रामा राव भी (1942) में जेल गये थे। उनके परिवार को ब्रिटिश राज ने कभी परेशान नहीं किया था। इस पर रेल मंत्री ने दिल्ली के एक पत्रकार-प्रतिनिधि मंडल से कहा कि वे असहाय थे। “ऊपर से आदेश आया था|” 
तना सब होने के कुछ दिन पूर्व ही अचानक बड़ौदा के समाचारपत्रों में खबर छपी कि कर्नाटक पुलिस और सी.बी.आई पिताजी को सान्ताक्रूज (मुम्बई) थाने में, फिर बंगलूर की हिरासत में ले गई है। माँ ने सी.बी.आई. अधिकारियों से विरोध व्यक्त किया कि बिना परिवार को सूचित किये बड़ौदा जेल में न्यायिक हिरासत से बाहर पिताजी को कैसे ले गये? इस पर पुलिस का जवाब था, 
“सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायमूर्ति ए. एन. राय के निर्णय के अनुसार इमर्जेंसी में सरकार को किसी भी नागरिक की जान लेने का भी अधिकार है। इसके खिलाफ कहीं भी सुनवाई नहीं हो सकती है|” बंगलूर (मल्लीश्वरम्) पुलिस हिरासत में ठण्डी फर्श पर सुलाना, बिना कुर्सी दिये घंटों खड़ा रख कर सवाल-जवाब करना, रात को तेज रोशनी चेहरे पर डालकर जगाये रखना, इसपर भी कुछ न बताने पर हेलिकाप्टर (पंखे से लटकाना) बनाना आदि यातनायें दीं गईं। बडौदा के मुख्य दण्डाधिकारी और जिला जज ने जमानत की याचिका खारिज कर दी। बाद में पिताजी की अपील सुनकर गुजरात हाई कोर्ट ने जमानत पर रिहाई का आदेश दे दिया। तभी इन्दिरा गाँधी सरकार ने उन पर मीसा (आन्तरिक सुरक्षा कानून) के तहत नजरबन्दी का आदेश लागू कर दिया। तब तक कानून था कि यदि पुलिस साठ दिन में चार्जशीट नहीं दायर कर सकी तो जमानत अपने आप मिल जाती थी.
 स प्रावधान को कांग्रेस सरकार ने संशोधित कर एक सौ बीस दिन कर दिया। इसके अलावा यह भी कानून बना दिया गया कि पुलिस के समक्ष दिया गया बयान भी सबूत माना जायेगा। अर्थात जबरन लिया गया वक्तव्य भी वैध बना दिया गया जो गुलाम भारत में भी नहीं था। जब जमानत मिलने पर भी जेल के अन्दर ही पिताजी को दुबारा गिरफ्तार कर दिल्ली रवाना कर दिया गया तो ये सारे अमानविक तथा अवैध संशोधन अपनी तीव्रता खो चुके थे। तब एक चुटकुला चल निकला था कि मीसा के मायने हैं मेइंटिनेन्स ऑफ़ इन्दिरा एण्ड संजय (इन्टर्नल सेक्युरिटि) एक्ट है। 
अन्याय की पराकाष्ठा तो तब हुई जब पिताजी के वकील को भी जेल में निरुद्ध कर दिया गया था। बड़ौदा जेल में पिताजी के साथ यादगार घटनायें हुई। माओ जेडोंग का निधन (9 सितम्बर 1976) हो गया था तो पिताजी ने अपने वार्ड में शोकसभा रखी। सभी कैदी शामिल हुए| जिसे श्री बाबूभाई जशभाई पटेल, जो 1977 में जनता पार्टी के मुख्य मंत्री बने, जनसंघ विधायक चिमनभाई शुक्ल जो राजकोट से लोकसभा में आये, सर्वोदयी प्रभुदास पटवारी जो 1977 में तमिलनाडु के राज्यपाल नियुक्त हुए, आदि ने संबोधित किया। सबने वन्दे मातरम भी गाया तो संगठन कांग्रेसियों ने केवल पहला छन्द ही गाया क्योंकि अगले में मूर्तिपूजा का भास था, जिस पर कुछ मुसलमान आपत्ति करते आये है। 
स पर जनसंघ विधायक चिमनभाई शुक्ल ने आलोचना की कि इन कांग्रेसियों ने पहले भारत को बांटा और अब वन्दे मातरम को भी काट रहे हैं। बड़ौदा जेल में पिताजी को भोजन की कठिनाई तो होती थी क्योंकि वे प्याज-लहसुन तक का परहेज करते है। नाश्ते में उन्हें गुड़ और भुना चना मिलता था|, जिसे वे चींटियों और चिड़ियों को खिला देते थें। लेकिन सबसे कष्टदायक बात थी कि पत्रकार को समाचारपत्र नही मिलते थे। पिताजी की दशा बिन पानी की मछली जैसी थी। मगर यह दुःख शीघ्र दूर हो गया जब एक युवक रोज पिताजी के लिए अखबारों का बण्डल पहुँचाता था| जिसे तरस खाकर जेलर साहब पिताजी के बैरक में पहुँचा देते थे। वह युवक था नरेन्द्र दामोदरदास मोदी, अधुना गुजरात के मुख्य मंत्री (आज भारत के प्रधानमंत्री)। नकी कैद के प्रथम दिन से ही पिताजी की प्रतिरोधात्मक संकल्प शक्ति को तोड़ने की साजिश सी.बी.आई. रचती रही थी। आला पुलिस हाकिमों ने केन्द्रीय गृह मंत्रालय के निर्देश पर पिताजी को जार्ज फर्नांडिस के विरूद्ध वादामाफ गवाह (एप्रूवर) बनाने का सतत यत्न किया था। एक दिन तो उनलोगों ने पिताजी को अल्टिमेटम दे डाला कि यदि वे सरकारी गवाह नही बनेंगे तो उनकी पत्नी (मेरी माँ) को भी सहअपराधी  बनाकर बड़ौदा जेल में ले आयेंगे। पिताजी ने बाद में हम सबको बताया कि सी.बी.आई. की धमकी से वे हिल गये थे। तब मेरी बहन विनीता चार वर्ष की और भाई सुदेव तीन वर्ष के थे। दूसरे शनिवार को माँ बड़ौदा जेल भेंट करने आईं। उनसे पिताजी ने पूछा। माँ ने बेहिचक कहा कि, “जेल में खाना पकाऊँगी। यहीं रहेंगे। पर साथी (जार्ज फर्नांडिस) से गद्दारी नही करेंगे|” अगले दिन सी.बी.आई वाले जानने आये। पिताजी का जवाब तीन ही शब्दों में था, “लड़ेंगे. झुकेंगे नहीं”। फिर यातनाओं का सिलसिला ज्यादा लम्बा था ।
कैदी के रूप में पिताजी तथा उनके साथियों से बड़े अपमानजनक तरीके से बर्ताव किया गया था, खासकर जब उन्हें अदालत ले जाया जाता था। हथकड़ी और मोटी रस्सी से बांध कर आठ-आठ सिपाही लोग बख्तरबन्द गाड़ी में जेल से कोर्ट और वापस ले जाते थें। सैकड़ों सशस्त्र पुलिसवाले उनकी गाड़ी के आगे पीछे चलते थे। पिताजी की कलाई के साथ स्व. वीरेन जे. शाह को भी बाँधा जाता था। इस पर पिताजी नेव्यंग्य किया कि इन्दिरा गांधी ने असली समाजवाद ला दिया है। श्री वीरेन शाह अरबपति, उद्योगपति (मकुन्द आयरन एण्ड स्टील के मालिक), भारतीय जनसंघ के सांसद और बाद में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल बने। अर्थात श्रमजीवी पत्रकार मेरे पिता तथा पूंजीपति वीरेन शाह का संग! सी.बी.आई. ने जब तीस हजारी कोर्ट (दिल्ली) के चीफ ज्यूडिशियल मजिस्टेªट मोहम्मद शमीम (बाद में दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति तथा अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष) के सामने अभियुक्तों को पेश किया तो जार्ज फर्नांडिस ने एक लिखित बयान पढ़ा। उसमें एक वाक्य था, “हम सब लोगों की कलाइयों पर बंधी ये हथकड़ियाँ वस्तुतः भारत राष्ट्र पर लगी जंजीरें है”। ठीक उसी वक्त पिताजी और अन्य ने बाँहें उठा हथकड़ियाँ झनझनायी। इसे बी.बी.सी. के संवाददाता मार्क टली ने विस्तार से प्रसारित किया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों का दस्ता कोर्ट आकर उनका “लाल सलाम” के नारे से अभिवादन करता था। तीस हजारी कोर्ट में अभियुक्तों से भेंट करने आने वालों में मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेई, मधु लिमये, राजनारायण, चन्द्रशेखर, भाकपा के ज्योतिर्मय बसु आदि थे। उसी दौर में बडौदा डायनामाइट केस के अभियुक्तों के बचाव में एक सलाहकार समिति गठित हुई थी। इसके अध्यक्ष थे वयोवृद्ध गाँधीवादी अस्सी-वर्षीय आचार्य जीवतराम भगवानदास कृपलानी। चन्द्रभानु गुप्त  कोशाध्यक्ष थे। अन्य सदस्य थे न्यायमूर्ति वी.एम. तारकुण्डे, सोली सोराबजी, अशोक देसाई आदि लब्धप्रतिष्ठित विधि विशेषज्ञ। एक युवा वकील दम्पति भी थे - चानक एक रात (18 जनवरी 1977) आकाशवाणी पर प्रधानमंत्री की घोषणा हुई कि मार्च में छठी लोकसभा का चुनाव आयोजित होगा। मीसा बन्दी सब रिहा हो गये। मगर डायनामाइट केस के सभी 25 अभियुक्त जेल में ही रहे। पिताजी बताते हैं कि तिहाड़ जेल में कैद जनसंघ के सुंदर सिंह भण्डारी (बाद में बिहार और गुजरात के राज्यपाल) ने बताया था कि ये सारे मीसाबन्दी रिटर्न टिकट लेकर जेल के बाहर जा रहे हैं। चुनाव के बाद वे सब फिर कैद कर लिये जायेंगे। भण्डारी जी का कथन था कि “डायनामाइट केस के आप कैदी तो तभी रिहा होंगे जब इन्दिरा गाँधी खुद चुनाव हार जायें|”
 मार्च के प्रथम सप्ताह (9 मार्च, मेरे दादाजी की सोलहवीं पुण्यतिथि पर) मेरी माँ दोनों बच्चों (मेरी पाँच-वर्षीया दीदी और चार-वर्षीय भाई) के साथ पिताजी से भेंट करने गाँधीधाम से दिल्ली तिहाड़ जेल गईं।
 रूंधे गले से माँ ने पिताजी को बताया कि शायद यह आखिरी मुलाकात है क्योंकि इन्दिरा गाँधी चुनाव जीत रहीं हैं और फिर जार्ज फर्नांडिस तथा पिताजी को फाँसी हो जाएगी। ये दोनों व्यक्ति नम्बर एक और दो पर नामित अभियुक्त थे। पिताजी हँसे और बोले कि कांग्रेस का सूपड़ा हिन्दी-भाषी प्रदेशों में साफ हो रहा है। 
राज नारायण जी रायबरेली से जीतने जा रहे हैं। जनता पार्टी की सरकार बनेगी। जेल के भीतर पिताजी को लोकमानस की सही सूचना थी बजाय बाहर रहकर माँ को, क्योंकि मीडिया पर सेंसर चालू था। फिर चुनाव परिणाम आये। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। उनकी काबीना का प्रथम निर्णय था कि बड़ौदा डायनामाइट केस वापस ले लिया जाय। इसमें गृहमंत्री चरण सिंह, वित्त मंत्री एच.एम. पटेल, कानून मंत्री शान्ति भूषण तथा विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अहम भूमिका थी। केस वापस हुआ और जार्ज फर्नांडिस ने मंत्री पद की शपथ ली। सभी लोग (22 मार्च 1977 को) तिहाड़ जेल से रिहा कर दिये गये।
 मगर किस्सा अभी बाकी था। कांग्रेस पार्टी के सांसदों और वकीलों ने दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर की कि मोरारजी देसाई काबीना का निर्णय अवैध करार दिया जाय और सार्वजनिक एवं राष्ट्रहित में डायनामाईट केस दुबारा चलाया जाय। हाईकोर्ट द्वारा इसे खारिज कर देने पर इन कांग्रेसी वकीलों ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दर्ज की। न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर तथा न्यायमूर्ति चेन्नप्पा रेड्डि की खण्ड पीठ ने सुनवाई की। बचाव के वकील थे जनता पार्टी के सांसद और वकील राम जेठमलानी। उनका तर्क था कि यदि इन्दिरा गांधी ,जो तब तक सत्ता पर लौट आई थीं, चाहें तो मुकदमा स्वयं खुलवा सकती हैं। अतः सर्वोच्च न्यायालय क्यों हस्तक्षेप करें| जजों की पीठ ने कांग्रेसी अपील खारिज कर दी। इमर्जेंसी की भूल के लिए जनता से बारम्बार क्षमा याचना करने वाली इन्दिरा गाँधी दुबारा हिम्मत नहीं जुटा सकी कि डायनामाइट केस खोल दें। अन्ततः पिताजी और सभी साथी मुक्त रहे।
फिर टाइम्स ऑफ़ इण्डिया प्रबंधन ने पिताजी को लखनऊ ब्यूरो प्रमुख बनाकर (फरवरी 1978) मेरे जन्म के एक माह पूर्व) नियुक्त किया। मगर इसमें भी मोरारजी देसाई को हस्तक्षेप करना पड़ा। जनता पार्टी काबीना का महत्वपूर्ण निर्णय था कि जो भी लोग इम्मेर्जेंसी का विरोध करने पर बर्खास्त हुये हैं, उन्हें बकाया वेतन के साथ पुनर्नियुक्त कर दिया जाय। प्रधानमंत्री ने टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के चेयरमैन अशोक जैन को खुद आदेश दिया कि काबीना के इस निर्णय के तहत पिताजी को सवेतन वापस लिया जाय। अतः टाइम्स ऑफ़ इण्डिया जो आम तौर पर भारत के श्रम कानून की खिल्ली उड़ाता रहता है, को मानना पड़ा। वह केन्द्रीय सरकार के निर्णय की अवहेलना करने से सहमा। और तब पिताजी लखनऊ में संवाददाता के रूप में कार्यरत हो गये (फरवरी 1978)। हमारें परिवार की यह गाथा है।
के. विश्वदेव राव
फोनः- 9415010300

गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

गजब की नेतृत्व क्षमता है विपिन धूलिया में !

National Secretary IFWJ Vipin Dhuliya  
" सन 1982 मे दिल्ली से जनसत्ता शुरू होने के बाद उस के तेवरों ने बेशक पत्रकारिता को नए आयाम दिये ,मगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे विपिन धूलिया पहले पत्रकार थे जिसने उससे भी आगे बढ़कर मौलिकता के साथ अखबार और खबरों के साथ पत्रकारों के हितों के मोर्चे पर एक साथ काम किया । इस सबसे अलग उन्होने कभी किसी पत्रकार के अनुचित व्यवहार या खबर को प्रश्रय नहीं दिया ।बल्कि पत्रकारों की नयी पीढ़ी को तैयार करने में उनकी हमेशा रूचि रही,जो अब IFWJ में भी  दिखाई देगी। "

त्तर भारत के पत्रकारों मे विपिन धूलिया एक जाना पहचाना नाम है। करीब बीस साल बाद वह फिर अब चर्चा मे आए हैं, जब उन्हें हाल मे ही मथुरा मे हुये महासंघ के सम्मेलन मे  भारतीय श्रमजीवी पत्रकार महासंघ (IFWJ )के राष्ट्रीय सचिव की कमान सौंपी गयी है ,इस दायित्व् के साथ उन्हें महासंघ के मुख्यालय का भी प्रभारी बनाया गया है । ट्रेड यूनियन और जनहित के मुद्दों पर उनके भीतर की खलबली को मैंने बड़े नजदीक से महसूस किया है ।अपने पेशे के साथ आम जन की हितों पर उनके भीतर की आग को उन्होने अपनी कलम की धार से न केवल आवाज़ दी बल्कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे पत्रकारिता की दशा और दिशा को बदलने मे उनका बहुत बड़ा योगदान है । अपने साथियों के लिए वह हमेशा एक प्रेरणा स्रोत बने और सबसे आश्चर्य की बात यह कि उन्होने पत्रकारिता के पेशे मे आने की ललक रखने वाले किसी भी उम्र के उत्साही व्यक्ति को हतोत्साहित नहीं किया ।
स सबसे अलग उनकी सबसे खास बात यह थी कि उन्होने अपनी पेशेगत जिम्मेदारियों को बखूबी  निभाया । शायद यही वजह रही कि बरेली अमर उजाला से सीधे राष्ट्रीय  न्यूज़ एजेंसी पीटीआई की हिन्दी सेवा ' भाषा ' जब शुरू हुयी तो पहले ही बैच मे उन्हें सीधे उपसंपादक बनाया गया। वहाँ के प्रथम संपादक और वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रताप वैदिक की टीम के वह एक जिम्मेदार सदस्य बने और फिर पेशे मे ऐसे रमे कि ट्रेड यूनियन से जुड़े रहने के बावजूद उनकी सक्रियता पत्रकारिता मे ही ज्यादा रही ,वजह उन्हें नित नयी नयी ज़िम्मेदारी मिलती रही और इसके बाद कई टीवी चैनल लांच करने के साथ उन्हें सहारा टीवी मे भी महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी का निर्वहन करना पड़ा ।
स समय इलेक्ट्रानिक मीडिया मे कोई खबर आ जाना बहुत बड़ी बात थी , उन्होने इस क्षेत्र मे भी नया और क्रांतिकारी कदम उठाया । नीतियों मे परिवर्तन करके कस्बों और तहसीलों के पत्रकारों की बहुत बड़ी टीम बनाकर सहारा टीवी पर कस्बों और शहरों की हर छोटी-छोटी खबर को राष्ट्रीय बना दिया । उस समय ये खबरें टीवी की स्क्रीन पर नीचे एक स्ट्रिप के रूप मे चलती थी । यह एक ऐसा कदम था, जिसने इलेक्ट्रानिक मीडिया की दिशा बदल दी और इसके बाद लगभग सभी टीवी चैनलों को क्षेत्रीय पत्रकारिता की ओर रुख करना पड़ा।  जिसका नतीजा है कि आज छोटे छोटे कस्बों मे टीवी चैनलों के पत्रकार हैं । इससे भी ज्यादा  महत्वपूर्ण बात यह रही कि छोटे कस्बों के पत्रकारों को उनकी ही पहल पर आर्थिक संरक्षण मिला । प्रबंधन को मजबूरन उनकी बात माननी पड़ी । नतीजतन पेशेवर पत्रकारों की एक बहुत बड़ी टीम कहें या पीढ़ी तैयार हो गयी जो आज भी प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया का आधार स्तम्भ है ।
विपिन धूलिया के व्यक्तित्व मे एक गज़ब का आकर्षण और एक अद्भुत नेतृत्व क्षमता है । पत्रकारिता उनकी पहली प्राथमिकता तो ट्रेड यूनियन उनका सपना -दोनों मोर्चों पर उन्होने अपने शुरुआती दौर मे साथ साथ काम किया । उन्होने कभी किसी को किसी भी तरह के पूर्वाग्रह  से नहीं देखा । पत्रकारों के हितों के लिए संघर्ष मे युवावास्था से ही आगे बढ्ने की चाह  रखने वाले विपिन धूलिया ने सन 1984 में श्रमजीवी पत्रकार यूनियन की सुप्त पड़ी बरेली इकाई को सक्रिय किया और बहुत कम समय मे ही बरेली मे एक यू पी इकाई का सम्मेलन कराने के बाद बहुत जल्दी ही नैनीताल मे भारतीय श्रमजीवी पत्रकार महासंघ की राष्ट्रीय कार्यपरिषद का सम्मेलन अपने दम पर आयोजित करने का भी प्रण किया और उसे पूरा भी किया। यह सम्मेलन श्रमजीवी पत्रकार महासंघ के लिए इस मायने मे यादगार बना कि उस दौरान उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र (कुमायूं और गढ़वाल मण्डल -वर्तमान उत्तराखंड प्रदेश ) के सभी जनपदों मे यूनियन की सक्रियता हुयी और बहुत सारे लोग उस समय पत्रकारों के इस सबसे बड़े संगठन से जुड़े । हालांकि यह कोई सामाजिक उपलब्धि नहीं कही जाएगी मगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और अब उत्तराखंड राज्य के पत्रकारों के लिए वह उस समय बहुत बड़ी उम्मीद की किरण बनकर उभरे । बात पत्रकारों के वेतनमान और आर्थिक हितों की हो या उनकी सुरक्षा की,धूलिया जी ने हमेशा आगे बढ़कर पत्रकारों को हिम्मत दी और उस दौरान इस सारे इलाके मे पत्रकारों  के भीतर आत्मसमान और सुरक्षा का एक ऐसा भाव आया,जिससे पत्रकारों के बीच नया नेतृत्व उभरा । उत्तराखंड और पश्चिमी  उत्तर प्रदेश  जिलों में  इकाइयां सक्रिय हुईं। इसका नतीजा यह हुआ कि पत्रकारों के दूसरे संगठन एनयूजे और उसकी उत्तर प्रदेश इकाई की सक्रियता भी और बढ़ी ।एक स्वस्थ प्रतियोगी माहौल ने पत्रकारों  की गरिमा बढ़ाई ।
मैं धूलिया जी को तब से जनता हूँ,जब वह बरेली अमर उजाला मे  आए थे जब मैं 1984 मे अपनी एलएलबी की पढ़ाई कर रहा था और छत्र और सामाजिक आंदोलनों से जुड़ा हुआ था । वह उस समय अमर उजाला मे एक रिपोर्टर थे । अक्सर अपने आंदोलनो की खबर लेकर मैं अमरउजाला के दफ्तर जाता था -साथियों के साथ ! मेरी लिखी खबर को पढ़ने के बाद उन्होने मेरा परिचय मेरे भीतर के पत्रकार से करवाया । मैं हतप्रभ था । हमारे द्वारा उठाए जाने वाले मुद्दों पर उन्होने  एक पत्रकार की नजर से काम किया और लोगों को इंसाफ मिला । और उनकी सतत प्रेरणा से मैंने अपना एलएलबी का परिणाम आने के बाद बजाए वकालत के , 28 अक्तूबर 1985 को अमरउजाला में एक प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में काम शुरू किया । इतना ही नहीं उन्होने ही मुझे भारतीय श्रमजीवी पत्रकार महासंघ से जोड़ा और जिले से लेकर राष्ट्रीय परिषद तक के लिए सदस्य चुने जाने का अवसर भी मुझे मिला । कई बार उनके साथ कई राज्यों की यात्राएं आज भी मेरे जीवन के सुखद संस्मरण हैं । हालांकि दिल्ली जाने के बाद भी मेरा उनसे सतत संपर्क बना रहा । उनके संपर्क मे मैं अकेला नहीं था ,और भी बहुतेरे पत्रकार थे जिनसे उनके संबंध सदैव मधुर बने रहे ।
मुझे याद है कुछ निहित स्वार्थी संगठनों के हितों पर चोट होने की वजह से एक बार तो पूरे बरेली मे उनके खिलाफ  एक ऐसा माहौल बना कि  दीवारों पर उनके खिलाफ नारे लिखे गए ,मगर उस दौरान सच्चाई और पेशेगत ईमानदारी के चलते अमरउजाला प्रबंधन उनके साथ खड़ा था । अमर उजाला के तत्कालीन संपादक श्री अशोक अग्रवाल और स्व. अतुल माहेश्वरी जी के निर्देशन मे एक तरफ जहा उन्होने अपनी कलम को  धार दी वहीं अखबार ने भी करवट ली । उनकी खबरें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पत्रकारों के लिए सबक बनी ,लिहाजा इस समूचे इलाके की पत्रकारों की भाषा ही बदल गयी । सन 1982 मे दिल्ली से जनसत्ता शुरू होने के बाद उस के तेवरों ने बेशक पत्रकारिता को नए आयाम दिये ,मगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे विपिन धूलिया पहले पत्रकार थे,जिसने उससे भी आगे बढ़कर मौलिकता के साथ अखबार  और खबरों के साथ पत्रकारों के हितों के मोर्चे पर एक साथ काम किया । इस सबसे अलग उन्होने कभी किसी पत्रकार के अनुचित व्यवहार या खबर को प्रश्रय नहीं दिया । बल्कि पत्रकारों की नयी पीढ़ी को तैयार करने में उनकी हमेशा रूचि रही,जो अब IFWJ में भी  दिखाई देगी।
मरउजाला के उस समय  मात्र दो ही एडिशन थे -आगरा और बरेली । यही दोनों एडिशन पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आवाज़  हुआ करते थे । संचार और तकनीक के सीमित युग मे उन्होने रिपोटिंग और अखबार को नए तेवर दिए  ,इसमे दो राय नहीं। नवीनतम तकनीक अपनाने मे अमर उजाला कभी देश के नामी और बड़े कहे जाने अखबारों से पीछे नहीं रहा ,उस दौर की पत्रकारिता को लोग आज भी याद करते हैं और विपिन धूलिया भी अपने उस कार्यकाल को कभी भूल नहीं पाएंगे,बरेली उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव रहा है । बीते 25 सालों पत्रकारिता मे ही रमे  विपिन धूलिया का जीवन के इस पड़ाव मे सबसे बड़ा दूसरा सपना पूरा होने  जा रहा है ,उनका सपना था भारतीय श्रमजीवी पत्रकार महासंघ के शीर्ष नेतृत्व मे शामिल होकर संगठन को नयी दिशा देना, जिससे देश भर के पत्रकारों के हितों मे कुछ सार्थक काम किया जा सके ,वह घड़ी अब आ गयी है ,और विपिन धूलिया जीवन के दूसरे दौर मे फिर एक नए मोर्चे पर तैनात हैं ! निश्चित तौर पर भारतीय श्रमजीवी पत्रकार महासंघ को नए बदलाव से नयी दिशा मिलेगी और संगठन फिर से अपना गौरव शैली इतिहास लिखने की और बढ़ेगा।  

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी बोले -"थाना तो नहीं है साहित्य अकादमी "

पद्मश्री श्री लीला धर जगूड़ी 
सन 1954 में साहित्य अकादमी की स्थापना के समय तत्कालीन राष्ट्रपति स्व. राधाकृष्णन और प्रधानमंत्री स्व. पं जवाहर लाल नेहरू ने इसकी उदघाटन के समय यह बात साफ़ कर दी थी इस अकादमी में प्रवेश करने वाला मैं अंतिम व्यक्ति हूँ ,जो राजनीति से जुड़ा है। आज के बाद कोई भी राजीनीतिक व्यक्ति इस साहित्य अकादमी में प्रवेश नहीं करेगा और न ही सरकार का इसमें किसी किस्म का कोई दखल रहेगा। शायद यह बात कितने साहित्यकारों को पता है,यह तो मैं नहीं जानता ,मगर साहित्य अकादमी में किसी राजनीतिक व्यक्ति का कोई दखल न तो अभी तक है और न हो सकता है ,यह बात साफ़ है। वरिष्ठ कवि व साहिय्कार पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी जी कहते हैं जब चाहो अपने ही काम का अपमान अपने हाथों कर लो -और तुर्रा यह की सरकार ठीक काम नहीं कर रही है ?ये क्या बात हुयी ?
साहित्य अकादमी पुरस्कारों की रेलमपेल के दौरान अभी कुछ दिन पहले मेरे मित्र एवं अग्रज और वरिष्ठ साहित्यकार एवं कवि, पद्मश्री सम्मान से विभूषित श्री लीला धर जगूड़ी जी से से अक्सर कभी न कभी किसी समसामयिक मुद्दे पर चर्चा हो ही जाती है।  जगूड़ी जी बेबाक और निर्विवाद साहित्यकार हैं और गद्य और पद्य मे समान रूप से लिखते हैं । समसामयिक मुद्दों पर भी अक्सर अपनी  और बेबाक टिप्पणी उन्हें चर्चा मे ला देती है । हाल में हुयी एक चर्चा के दौरान तमाम बातों के अलावा पुरस्कारों की वापसी के मुद्दे पर उन्होंने अपने अपनी बात भी कही ,अपने तरीके से । 
गूड़ी जी इस मुद्दे पर काफी नाराज़ हैं ,खासकर इस बात से कि अचानक पुरस्कारों की राजनीति होने लगी ,न केवल  पुरस्कार वापस किये जा रहे ,बल्कि बाकी लोगों से भी यह अपेक्षा की जा रही है की वह भी पुरस्कार वापस करें ! वह खिन्न हैं और आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि आखिर हो क्या रहा है ?अकादमी साहित्यकारों,लेखको के लिए एक मंच है,जो उनकी रचनाओं के प्रकशन के साथ साथ समस्त भाषाओं में से बेहतर साहित्य का चयन करके सभी भाषाई साहित्यकारों को प्रोत्साहित करती है और बेहतर रचनाओं,कृतियों को पुरस्कृत करती है। साहित्यकारों और लेखकों का सरकार से दूर तक कोई लेना देना नहीं है ,क्योंकि वह सब रचनाकार हैं ! एक लेखक का सरकार से क्या और कितना सरोकार हो सकता है ,यह समझना कोई बहुत गंभीर प्रश्न नहीं है। उनका तर्क था।   
गूड़ी जी कहते हैं -ये कोई मजाक तो है नहीं -पहले पुरस्कार के लिए रचनाएं भेजी आवेदन किया और अब जब चाहो अपने ही काम का अपमान अपने हाथों कर लो -और तुर्रा यह की सरकार ठीक काम नहीं कर रही है ? सन 1954 में साहित्य अकादमी की स्थापना के समय तत्कालीन राष्ट्रपति स्व. राधाकृष्णन और प्रधानमंत्री स्व. पं जवाहर लाल नेहरू ने इसकी उदघाटन के समय यह बात साफ़ कर दी थी इस अकादमी में प्रवेश करने वला मैं अंतिम व्यक्ति हूँ जो राजनीति से जुड़ा है। आज के बाद कोई भी राजीनीतिक व्यक्ति इस साहित्य अकादमी में प्रवेश नहीं करेगा और न ही सरकार का इसमें किसी किस्म का कोई दखल रहेगा। और शायद यह बात कितने साहित्यकारों को पता है यह तो मैं नहीं जानता ,मगर साहित्य अकादमी में किसी राजनीतिक व्यक्ति का कोई दखल न तो अभी तक है और न हो सकता है ,यह बात साफ़ है। इसके साथ ही मात्र तीन दिन पहले निर्णायक मंडल के सदस्य इसका फैसला करते हैं ,इसके पहले किसी को कुछ पता नहीं होता है।  
गूड़ी जी कहते हैं -पुरस्कार वापस करने वालों को यह तो पता होना ही चाहिए कि "साहित्य अकादमी कोई साहित्यकारों का थाना नहीं है ,जो ज़रा सी कोई बात हुयी नहीं और पहुँच गए रपट लिखाने" ! यह एक बेहद  गैरजिम्मेदाराना बात है।  समाज इन सब बातों की अपेक्षा  तो नहीं करता है।  इसका भी कोई मतलब नहीं है की किसी एक ने पुरस्कार वापस क्या तो अब बाकी सब भी करें -चाहें मुद्दे से सहमत हों या नहीं।  साहितकार का काम सरकार से लड़ना नहीं है ,वह तो अपनी कलम से लड़ता है। रचना समाज का चित्रण भी है और विसंगतियों  को भी उकेर देती है ,इसके लिए कलम ही काफी है।  
पुरस्कारों की वापसी के लिए एकाएक चले अभियान के पीछे मुदा क्या है -जगूड़ी जी बोले भाई मुझे नहीं पता क्या मुद्दा है बाकी मैं इतना जानता हूँ की कसी भी साहित्यकार को पुरस्कार सरकार की की समाज की निगरानी और रोज बरोज होने वाली घटनाओं पर राजनेताओं  की तरह अपनी प्रतिक्रिया नहीं देनी है।  हाँ अब अगर किसी को सरकार से ही लड़ना है तो उसके लिए पुरस्कार को माध्यम न बनाया जाये।  पुरस्कार सिर्फ रचना की श्रेष्ठता के लिए मिला है।  सरकारों पर जोर आजमाइश के लिए नहीं।  कोई भी मुदा जो सार्वजनिक हो उसके लिए लोकतंत्र में हजार माध्यम  हैं -कहीं भी विरोध दर्ज किया जा सकता है ! रही बात सरकार से लड़ने की ,तो इसका भी तरीका है ,मगर आज कोई ऎसी नयी बात तो नहीं हुयी है ! आखिर क्यों लड़ना है ?किससे लड़ना है। यह तो तय हो ? साहित्यकार लड़ेंगे ? यह भी तय होना चाहिए।  
कादमी पुरस्कारों के बाद पद्म पुरस्कारों की वापसी के लिए अपील की जा रही है ,इसकी चर्चा वह थोड़ा भड़के और बोले यह क्या बात  हुयी ? मैंने वापस किया, तुम भी करो  ! मिलते समय क्या सबने एक दूसरे की सिफारिश की थी ? अरे भाई जिसे विरोध  करना है ,सड़कों पर करो।  मैं नहीं समझता कि साहित्यकारों को  केवल अपने काम के लिए मिले सम्मान को वापस करके (जो सरकार ने नहीं दिया है ) साहित्यकार या कोई और अपना सरकार से विरोध  प्रकट करने के लिए पुरस्कार को माध्यम बनाकर उचित कदम उठा रहे हैं !
-आशीष अग्रवाल 

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

साहित्य अकादमी -अब ये पुरस्कार किस मतलब के थे !

साहित्य अकादेमी :-पुरस्कार  की राजनीति कहीं इस पर कब्जे की कोशिश तो नहीं !
साहित्य कला और संगीत ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें श्रेष्ठता का कोई सूत्र या गणित नहीं है जिसके जरिये यह तय किया जा सके कि यही अंतिम और श्रेष्ठ था ! इसका मतलब यह भी नहीं है इसके बाद जो होगा ,वह इससे श्रेष्ठ नहीं होगा ! यह कहना अनुचित नहीं होगा कि जब भी इन पुरस्कारों का चयन हुआ है तो एक शर्त के साथ "निर्णायक मण्डल का निर्णय अंतिम होगा ,जिसे किसी भी अदालत मे चुनौती नहीं दी जा सकती " ।
इस चुनौती को स्वीकार करके पुरस्कृत हो जाने का मतलब सरकार के आगे समर्पण और समझौते के अलावा कुछ और नहीं है ,और इसे स्वीकार करने वाले आज विरोध के घड़ियाली तरीके से कुछ भी कहें,- तो उसका मतलब बेहद मक्कारी भरा तरीका इससे ज्यादा क्या हो सकता है कि कोई अपना पुरस्कार ही लौटाए ,जिसका मूल्य उसने अपनी प्रतिष्ठा के रूप मे कई सालों मे वसूल लिया है।यह कहना सर्वथा उचित है एक पुरस्कार का मतलब समाज मे कुछ दिन का ही तो सम्मान होता है !,इससे ज्यादा और कुछ नहीं ! अगर इन पुरस्कारों के साथ जीवन भर के लिए आज भी सरकार पेंशन की घोषणा कर दे, तो सबके सब अपने लौटाए गए पुरस्कार वापस मांगने की कतार मे लगे नजर आएंगे ।
ज फिर एक अपील आई है ,जिनहोने पुरस्कार वापस नहीं किया है, वह भी करें ! लगता ही नहीं यह अपील करने वाले कोई बड़े समझदार और धीर गंभीर लोग होंगे ,जो अपनी बात को कहने का कोई ऐसा तरीका जरूर जानते होंगे, जिसे भेड़चाल या अविवेक
पूर्ण न कहा जाये । मगर ऐसा हुआ नहीं । आखिर साहित्यकार लेखक ही क्यों राजनीतिकपदों पर बैठे साहित्यकार भी अपने पदों से इस्तीफा दें ! केन्द्रीय ही नहीं राज्य स्तर पर भी ! साहित्य मे भी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय का भेद किया जा सकता है ?यदि हाँ तो यह अँग्रेजी शासन की गुलामी के दौर की एक बहत बड़ी संस्कृति अभी इस देश मे जीवित है । देश मे होने वाली घटनाओं पर किसी का नियंत्रण नहीं है । सरकार के प्रति विरोध जताने के लिए एक से एक आसान तरीके हैं ,मगर हम कब किसका विरोध करेंगे यह अपनी सुविधा और स्वार्थों से तय करेंगे ,इसमें साहित्यकार पत्रकार सबसे आगे हैं ।
देश मे साहित्यकारों के साथ किसी भी वर्ग के सम्मान के लिए बनाई गयी पूरी तरह से स्वायत्त संस्था ,जिसका नियंत्रण भी साहित्यकारों के हाथ मे होता है ,आज इसके अस्तित्व पर बड़ा सवाल है । इस सवाल का जावाब आज नहीं तो कल देश कि सरकार के साथ उन सब को देना और खोजना होगा जो कलम को लोकतन्त्र की रक्षा और सत्ता पर नियंत्रण के लिए एकमहत्वपूर्ण और मजबू हथियार मानते हैं। कलम की ताकत को समझते और समझाते हैं और येन केन प्रकारेण देश और समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हैं !
ब ये नयी बहस का विषय है है कि देश मे राजनीतिक कारणों से या अस्थिरतावादी ताकतोंके द्वारा समय समय पर की जाने वाली घटनाओं और जैसी कोई भी घटना हो जाने पर देश के साहित्यकारों की प्रतिकृया समान क्यों नहीं होती । इसमें दो राय नहीं है साहित्यकारों से देश कोई उम्मीद नहीं करता ,लिखना पढ्न उनका शौक है पेशा है ,उनकी रोजीरोटी है ,मगर ये सत्ता पर नियंत्रण का भी एक माध्यम है यह कैसे माना जा सकता है ?सत्ता पर नियंत्रण केवल और केवल वोट की ताकत से ही हो सकता है ,लिहाजा पढे लिखे लोग यदि खुद को दिये गए सम्मान को अपनी ताकत और सत्ता पर कब्जे का एक हथियार बनाएँ ,तो इससे ज्यादा बचकानी और शर्मनाक हरकत क्या हो सकती है । देश सदियों से तरह तरह से हिंसासम्मानित करने वाली संस्थाओं के मुखिया के हाथों भी हमे सम्मान प्राप्त करने मे कोई शर्म नहीं आती । 
हाँ यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि खासकर साहित्य अकादमी से पुरस्कृत वर्ग की वर्तमान भाजपा सरकार मे किसी तरह की पैंठ है ही नहीं, इसलिए  कि इन सारे लोगों को जीवन मे इस बात का भान भी नहीं था कि कभी ऐसा बी होसकता है !किसी भी घटना और सरकार के फैसले का विरोध करना केवल उन लोगों की ज़िम्मेदारी नहीं है,जो सरकार से किसी भी तरह से उपकृत हुये हैं ,यह बात समझने और समझाने के लिए किसी विशेष सिद्धान्त या विचार धारा की जरूरत नहीं है । और विद्वान ,चिंतक और देश के शुभचिंतक केवल वही नहीं हैं जो सरकार के जरिये उपकारित हुये है । देश के प्रत्येक नागरिक की इस देश के प्रति समान जिम्मेदारी है ,हाँ यह जरूर माना जा सका है जो लोग देश की जनता की ओर से सरकार द्वारा सम्मानित  किए गए, वह खुद की ज़िम्मेदारी कुछ ज्यादा समझ लें ,अगर इसका मतलब यह के नियंत्रक की हैसियत तक खुद को गलत फहमी मे ले जाएँ । आखिर ये पुरस्कार एक समानातर सरकार या संसद का गठन नहीं करते हैं ।
समें दो राय नहीं है कि समाज के प्रत्येक वर्ग को देश के प्रति अपनी चिंता और ज़िम्मेदारी का एहसास होना चाहिए ,मगर इस भाव को प्रदर्शित करने के लिए विरोध के सैकड़ों लोकतान्त्रिक तरीके हैं ,जिनके जरिये अब तक लाखों लोगों ने सरकारों को झुकाया है । अपनी बात को मनवाया है । देश ने भी देखा कि किसी मुद्दे पर किसी वर्ग ने आंदोलन किया और लाखों करोड़ों लोगों ओ न्याय मिला । साहित्य अकादमी और पद्म पुरस्कारों की अहमियत के साथ खिलवाड़ करने का बेहूदा नाटक आज की पीढ़ी को यह सोचने के लिए मजबूर करता है आखिर इन पुरस्कारों का मकसद क्या है ?क्यों दिये जाते हैं ?किसे दिये जाते हैं ?इनके चयन का नियम कानून भी कुछ है या नहीं ?या अब तक ये केवल ज़ोर जुगाड़ और चमचागीरी के जरिए हासिल होते रहे ?
कादमी और अब पद्मश्री भी निकालने शुरू हो गए हैं । इसमें अब कोई शक नहीं है कि ये पुरस्कार किसी को अपने काम के बल पर नहीं मिले थे ,काम पर मिले होते तो सीने से लगाकर रखते ! इन लोगों ने इन पुरस्कारों को ही सम्मान नहीं दिया और न खुद को सम्मानित महसूस किया !गज़ब की गलतफहमी है -पुरस्कार वापस करके किसका विरोध और किसे विरोध जता रहे हैं?--देने वालों का या अपने अपने काम का?या खुद की पात्रता न होने की स्वीकारोकति है ये !इसमें कोई दो राय नहीं है कि इसका मौजूदा सरकार से कोई लेना देना नहीं है । होता तो ये -पहले वहाँ तो जाते, जहां के नाम पर छाती पीट रहे हैं !शर्म आती है देश इन्हें बुद्धिजीवी मान रहा था !फाइव स्टार होटलों का बिल कौन देगा जो पूरे खानदान को लेकर मौज की गयी थी जब पुरस्कार लेने गए थे ! वह देश का पैसा था ।
पिछले कम से कम 25 वर्षों मे साहित्य अकादमी और ज्ञान पीठ पुरस्कारों के चयन कर्ता और पुरस्कारों के लिए चयनित मूर्धन्य इसके पात्र भी थे या नहीं ?चयन निर्धारित मानदंडों के आधार पर हुआ ? चयन होने के बाद अचानक कब कब किसके पक्ष मे फैसला बदला गया ?और इन पुरस्कारों के पात्रों के चयन मे सरकारों की क्या भूमिका रही और इन सब का सरकारॉन से क्या संबंध रहा ,ये सब अब सीबीआई की जांच का विषय है !
एक और बात !इनके आगे संकट यह है कि इनहें भाजपा और नरेन्द्र मोदी कैसे पहचानें कुछ तो करें ? ले देकर एक यही तो पुरस्कार है।कसम खाएं अब बाकी जीवन में कोई सम्मान सरकार से नही लेगे।सरकार ,देश की होती है किसी के घर की बांदी नहीं । इनका मकसद मोदी हैं मुद्दा नहीं ।समझ मे नहीं आ रहा है है देश की राजनीतिक गतिविधियों से साहित्य अकादमी का क्या लेना देना ?
साहित्य अकादमी पुरस्कारों की वापसी से यह साबित हो गया है कि यह पुरस्कार ऐसे लोगों को दिये गए थे जो एक वर्ग, जाति ,क्षेत्र और संप्रदाय के ही समर्थक थे और यही नहीं एक वर्ग के बार खिलाफ भी ! और उस समय की सरकार के प्रचंड समर्थक ! अब यह समझ मे नहीं आया कि इस पुरस्कारों का सरकार से क्या लेना देना !इन पुरस्कारों का चयन मे सरकार का कोई नुमाइंदा नहीं होता (लौटाने वालों को वर्तमान भाजपा सरकार के कार्यकाल मे कोई पुरस्कार नहीं मिला है ) । इसके चयनकर्ता साहित्यकार ही होते हैं ,सरकार केवल पैसा देती है । अब इन्हें लौटाने से यह साबित होता है कि यह पुरस्कार उन्हीं लोगों को दिये गए जो उस समय की सरकार के प्रचंड समर्थका थे !और चयन कर्ता भी सरकारी !
-आशीष अग्रवाल 

बुधवार, 16 सितंबर 2015

Giant strides of progress in Chhattisgarh

Secretary general of IFWJ Parmanand pandey
I returned to Delhi today after spending more than 3 days in Chhattisgarh and its Bastar region.This was my first visit to Bastar and, that too, its interiors of Dantewada and Chitrakoot. When I was leaving Delhi for Bastar I was engulfed with many doubts.
I have been reading for the last so many years in the newspapers and listening and watching on radio and tv that Bastar is beset with frightening problem of naxalism, 'Nobody ventures out of his/her house after sunset. Naxals can strike at any place and at any time without any fear of the law enforcing agencies.The state apparatus has been completely paralyzed.The state machinery has no say at all either in the administration or in the justice delivery system. Naxals have complete sway and it is only their writ that runs across the entire region..Bastar has become a forsaken place with no trace of development. Tribal people are living the primitive live in the abyss of abject poverty.' But now I can say it with all confidence that the above perception is totally wrong and farthest from the truth.
I have seen with my own eyes that women along with men walking on foot, cycling down the roads and moving by motorised vehicle of different types even at 11 o clock at night. There is no dearth of electricity.Almost every house, even in deep dense forests, is electrified.Bazaars are buzzing with activity. Normal life in Bastar appears to be more active than in Delhi or in other cities.I do not mean to say that everything is hunky dory in Bastar or Chhattisgarh but there can be no doubt that the whole state is developing very fast. Chhattisgarh is considered to be the bowl of rice, rich with minerals and abundance of herbs and trees of different types in the vast expanse of jungles.The administration appears to be geared up for sustainable development with the help of new technology,
I have been mainly impressed with three novelties that have been introduced by the government, which have significantly changed the life of people of Chhattisgarh. One of them is the introduction of Mahatari (mother) express,a service dedicated to expecting mothers that provide complete care to the mother at the time of delivery and of the child's pre- natal to post natal care.It is totally free service.So much so, every mother gets an additional assistance of Rs 1000/ from the state government.This information has not been given to me by the government officials but the people themselves.
Another important thing,which has impressed me most is the introduction of ambulance service which can be availed by dialing 108. I have seen it with my own eyes while traveling from Raipur to Jagdalpur. There was a head-on collision of the two motorcyclists on NH30 resulting into serious injuries of three persons. It happened near Dhamtari. A Samaritan made a telephone call and to my wonder in less than 10 minutes an ambulance arrived at the place of accident. And the third thing is the introduction of a social welfare scheme that gives rice to poor people at Rs 1 per kg.Every poor person gets 7 kg of rice per month.Earlier there were many scandals attached to the implementation of this novel scheme but now it has been plugged hardly leaving any scope for cheating as the amount of subsidy is transferred directly to the account of the beneficiary.
I have no doubt that if the pace of industrialization is kept up and the improvement in the agriculture is given priority, Chattisgarh will become the fastest growing state in the Country and the naxalism will get its burial much sooner than we expect.
From the facebook wall of sri Parmanand Pandey

शनिवार, 24 जनवरी 2015

किरण बेदी की जिम्मेदारी है अरविन्द को साथ लायें !

ये नजदीकियां -अभी नहीं बनी हैं दूरियां !
लोग भटके हैं ,बदले हैं ,आन्दोलन और मुद्दा नहीं ,भारतीय जनता पार्टी की तब भी उस आन्दोलन से कोई असहमति नहीं थी ,अब भी नहीं है। कानूनी मजबूरी और प्राथमिकताएं जरूर अलग हो सकती हैं। इसमें दो राय नहीं कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार और उनके मंत्रियों की नीयत में कहीं खोट नहीं हैं। और यही वजह है सरकार के स्तर पर न केवल केंद्र बल्कि राज्यों में भी नरेन्द्र मोदी की वजह से हालत बदले हैं
लोग बदले हैं नीतियां बदली हैं। काम काज के तरीके बदले हैं। जिसके नतीजे एक दम तो नहीं दिख सकते, मगर अखबारों की ख़बरें अब सुबह से हाजमा खराब और तनाव देने वाली नहीं  होती। सामाजिक विषमता की विषबेल रोज फलती फूलती नहीं दिखाई देती। सामाजिक भेदभाव और जहर घोलती सरकारी घोषणाएँ  और तुष्टि-पुष्टिकरण के समाचार अखबारों की  सुर्खियाँ नहीं बनते।
सबकी निगाहें अलग -लक्ष्य सबके एक !
दिल्ली केचुनाव की घोषणा से पहले अन्ना के साथ रालेगनसिद्धि में लेखक !
अन्ना तब भी दिल्लीके मुद्दे आन्दोलन पर कुछ नहीं बोले !
ह तो तय है कि किरण बेदी और अरविन्द केजरीवाल, टीम अन्ना के साथ थे और उसमें अग्रिम पंक्ति के नेताओं में थे। जन लोकपाल आन्दोलन का जो भी हश्र हुआ ,उसके बाद भी किरण बेदी और अरविन्द केजरीवाल के बीच किसी तरह का वैचारिक मतभेद नहीं था। अरविन्द केजरीवाल के सरकार बनाने के फैसले से पीछे हटने के बाद जब यह लगभग तय हो गया कि दिल्ली में चुनाव अब होने ही हैं, इसी दौरान किरण बेदी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा पैदा हुयी और उन्होंने पूरी जोड़ तोड़ करके खुद को किसी तरह अपना मुकाम तो बना ही लिया। उनकी महत्वाकांक्षा को स्वीकार किया गया है। नयेनेतृत्व  को अवसर से वंचित नहीं किया गया है।
किरण बेदी अब जनता के बीच आयीं हैं ,एक बड़ी जिम्मेदारी सम्हालने के लिए ,तो उन्हें  यह साबित भी करना है वह वैचारिक तौर पर  तब क्यों अरविन्द केजरीवाल के साथ थीं ,जब नरेंद्र मोदी देश मे बदलाव के लिए उन्हें मौका दिये जाने की अपील कर रहे थे और आज क्यों उनके खिलाफ हैं ? खिलाफ हैं भी यां नहीं ?
न दोनों ने क्या जनलोकपाल जैसे तमाम मुद्दे छोड़ दिए हैं?छोड़ भी दिए हैं तो कोई हर्ज नहीं ,मगर एक दुसरे के खिलाफ क्यों हैं? एक टीम का सदस्य होने के नाते किरण बेदी की ही जिम्मेदारी ज्यादा बनती है कि वह अरविन्द केजरीवाल को अपने साथ लायें । उम्र, तजुर्बे में बड़ी होने के साथ एक महिला होने के नाते भी उन्हें इस बात की भरपूर कोशिश करनी चाहिए की आज अगर दिल्ली को सम्हालने की जिम्मेदारी उन्हें मिलने का बेहतरीन अवसर मिला है तो सबसे पहले अपने वैचारिक सहोगियों को साथ लेकर चलें। इनमें अरविन्द केजरीवाल सबसे प्रमुख हैं। वह सिर्फ भटके हुए हैं।अब किरण बेदी एक अहम् मुकाम और जिम्मेदारी के लिए जनता के बीच उम्मीद बंधाने को आगे आ रही हैं तो उन्हें सबसे पहले अपनी सांगठनिक क्षमता भी साबित करनी है ,और जिसकी शुरुआत सबसे पहले अरविन्द केजरीवाल जैसे अपने सहयोगी को साथ लेकर करनी होगी ,उनका विरोध करने का तो कोई आधार उनके पास है ही नहीं।
क्योंकि टीम अन्ना के यही दो सारथी आमने-सामने हैं । बाकी एक साथ ,चाहे वह खुद आये या अपनी सोच बदली  या उन्हें सही रास्ते पर लाया गया -मगर आये एक मंच पर। बाबारामदेव,शाजिया बिन्नी और भी बहुत से लोग हैं। अरविन्द केजरीवाल को वह कारण बिबताने देने का मौक़ा देना चाहिए की आखिर जब उनकी बाकी टीम वैचारिक आधार पर उनसे अलग होकर भारतीय जनता पार्टी के साथ खडी है तब किस आधार पर वह टीम अन्ना के नेता बने और उन भरोसा करके दिल्ली ने जो जो सत्ता उन्हें सौंपी तो आखिर किस आधार पर उन्हने उसका मज़ाक उड़ा कर एक संवैधानिक रूप से निर्वाचित सरकार को  अपने मनमाने और सिरफिरे ढंग से छोड़ दिया और किस बेशर्मायी पूर्ण तरीके के वह फिर दिल्ली पर राज करना चाहते हैं?
रविन्द केजरीवाल ने एक काम तो किया है। राजनीतिक सत्ता की मनमानी के खिलाफ कैसे जनमत जाग्रत किया जाये और किस तरह से सता को खबरदार किया जाए ,इसका हताश हिन्दुस्तान को रास्ता दिखाने का काम करने का श्री उन्हें ही है। मगर अब उनके सहयोगियों की भी जिम्मेदारी बनती है की वह एक बार उन्हें अपने साथ आने का भी न्यौता दें ,जिनके साथ वह कल तक खड़े थे। और इस इस जिम्मेदारी का सबसे बड़ा जिमा फिलहाल किरण बेदी के पास है। अरविन्द मना करें ,उनकी अपील ठुकरायें ,यह उनका विहस्य है और अगर ऐसा होता तो कमसे कम रास्ते अलग तो होते हैं -फ़िलहाल दोनों एक रास्ते पर हैं -जो सिर्फ दिल्ली की सता को जाता है -जनता की ओर  तो किसी का रुख ही नहीं हैं। !
-आशीष अग्रवाल
नीचे दिये Links पर  पढ़ें - विशेष जानकारी :-
बेदाग छवि की किरण बेदी पर भी हैं कई दाग पति से अलग रहने लगीं किरण बेदी

रविवार, 26 जनवरी 2014

गिडगिडाते लोकतंत्र में ' केजरीवाद ' का उदय हुआ है यह !

इस पोस्ट को मात्र चौबीस घंटों में ७८६  में लोगों ने देखा , पढ़ा और पसंद किया। 
रविन्द केजरीवाल के उदय ने भारतीय राजनीति की दिशा और सोच तो बदल ही दी है,यह अलग बात है कि वह आधे-अधूरे अधिकारों और इच्छाशक्ति  वाली अपनी सरकार को कैसे चलाते हैं और कब तक चलाते हैं। इसमें दो राय नहीं कि आज़ादी के बाद से देश पर शासन कर रही कांग्रेस और इस बीच में जनता पार्टी और बीच में एन डी ए की अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार ने काफी हद तक विकास की सोच और तौर तरीके बदले, मगर यह कहना अनुचित नहीं होगा कि पार्टी की सोच जहां एक तरफ अपने विचारों पर आधारित थी वहीँ उसी पार्टी के सरकार के  मंत्रियों की सोच संसद और मंत्रालयों में काफी हद तक
कांग्रेस के तौर तरीकों से प्रभावित थी,यही वजह रही कि सरकार के पांच साल पूरे  होने के बाद अगले चुनाव में एनडीए और उसके घटक दलों को मुह की खानी पड़ी। यही नहीं इसके बाद हुए फिर एक चुनाव में कमोबेश यही स्थिति रही और हार कर पार्टी  को जब अपने सिद्धांत और विचारों में कमी नज़र आयी तो उसने एक दम नए अंदाज़ में फिर से अपना पूरा चोला ही बदल कर बजाय पार्टी को आगे करने के देश भर में अपनी एक चमत्कारिक छवि बना चुके गुजरात के तीसरी बार मुख्यमंत्री बने नरेंद्र मोदी को आगे करके अपने पक्ष में जो माहौल बनाने की कोशिश की है उसके पहले दौर के परिणाम तो उसके लिए उत्साहित करने वाले हैं मगर जिन मोर्चों पर पार्टी को शिकस्त खानी पड़ी,वह अब भी वैसे के वैसे ही हैं,और यहीं पर पार्टी का आगे का भविष्य टिका है। पार्टी के आम नेताओं के मुह से अकसर यही सुना जाता है कि सरकार सरकार बदले बदले से नज़र  आते हैं !
ह सच है कि भारतीय जनता पार्टी के लिए यह चुनाव  कांग्रेस से ज्यादा अहम् है। कांग्रेस अगर इस चुनाव में चरों खाने चित दिखायी देती है तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। उसके खिलाफ देश में जनमत तैयार है। इसमें भी अब दो राय नहीं है कि कांग्रेस कितना भी जोर लगा ले उसके पक्ष में माहौल बन पाना एक चमत्कार जैसा ही है ,मगर इसका मतलब यह कतई  नहीं हो सकता कि भारतीय जनता पार्टी के लिए मैदान एक दम साफ़ है। यह एक ऐसा कड़वा सच है कि जिसको सुनना ख़राब लग  सकता है मगर स्वीकार  करना कड़वा निगलने जैसा है -आँख बंद करके ! बीजेपी आज अगर केजरीवाल की आलोचना कर रही है या उसे अब केजरीवाल कांग्रेस के बाद शत्रु नंबर दो दिखायी देते हैं तो इसकी वजह उसका अपने  भीतर की  उस घबराहट  है जो असन्तुष्टो को केजरीवाल के घर का रास्ता दिखाती है,मगर पार्टी को बजाये केजरीवाल के अपने घर को ठीक करना चाहिए। क्यूंकि उसकी सफलता और असफलता इसी बिंदु पर है। मोदी की स्वीकारोक्ति ,आम जन मानस और पार्टी का अंतर्विरोध अलग अलग बातें है। मोदी को स्वीकार करने वाले वो भी है जो पार्टी उम्मीदवार से खफा हैं और उसके खिलाफ काम  करने का ताना-बाना बुन चुके हैं। और अब उसमे आखिरी गांठे लगा रहे हैं। बीजेपी को पहले भी जो नुक्सान हुआ है वह अपनों से ज्यादा हुआ है।  विरोधी दलों से कम। दिल्ली का ताज़ा चुनाव और इससे पूर्व उत्तराखंड के चुनाव इसकी ताज़ा मिसाल हैं। जहां पार्टी मात्र कुछ ही सीटों से पिछड़ गयी।
भारतीय राजनीति में केजरीवाल के उदय के लिए जिस हद तक कांग्रेस दोषी है, भारतीय जनता पार्टी इस मामले में अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती ,आखिर केंद्र से लेकर तमाम राज्यों में उसकी सरकारें रहीं हैं और हैं। सिर्फ यह मान कर भजपा अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती कि केजरीवाल केवल दिल्ली तक सीमित हैं। भाजपा और देश के सभी राजनितिक दलों को आज यह सच स्वीकार करना पडेगा कि केजरीववाल आज एक व्यक्ति का नाम नहीं बल्कि एक विचार धारा का नाम है, जो कांग्रेस समेत सभी राजनितिक दलों की उस कार्यप्रणाली से उपजी है जो कांग्रेस से हजार मतभेद होने के बावजूद सभी दलों ने कमोबेश सरकार के तौर तरीकों और गोपनीयता के नाम पर जो कांग्रेस की परम्परा  थी और है,उसे न केवल अपनाया बल्कि उसको बदलने की सोची तक नहीं। दिल्ली में सरकार बनाने के करीब सीटें ले आने के  पहले तक किसी भी दल और व्यक्ति  ने केजरीवाल का विरोध इसीलिए नहीं किया कि उनका मुद्दा गलत नहीं था। इसके साथ यह भी सही है किसी भी दल को चाहे भाजपा हो कांग्रेस, यह अंदाज़ा भी नहीं था कि केजरीवाल का ऊंट चुनाव में किस करवट बैठेगा ,बस चुनाव के बाद कांग्रेस का समर्थन लेना ही एक ऐसा मुद्दा बन गया, जिसको लेकर केजरीवाल का विरोध किया जा सकता है। हिन्दुस्तान के एक भी ज्योतिषी ने इसकी भविष्य वाणी तक नहीं की थी की केजरीवाल कहाँ जाकर टिकेंगे।
भारतीय राजनीति की दशा और दिशा बदले जाने की आवयश्कता के दौर में आज केजरीवाद का उदय हुआ है, जो  कहीं से भी राजनीति में अराजकता और सरकार में भ्रष्टाचार के समर्थन में  नहीं है। इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता। केजरीवाल अभी नए हैं सरकार और राजनीति  के लिए। उनके काम और सोच में कमी होना बड़ी बात नहीं है। उनके पास अनुभव नौकरी का है और जज़बा शासन करने का नहीं। इसका मतलब यह कैसे हो सकता है कि उनकी उस नियत में बदलाव आ गया है,जिसको लेकर उन्हें जनसमर्थन मिला और आज वह देश पर राज करने की अपनी बारी का इंतज़ार करने वाले मंसूबों के लिए नयी चुनौती बन गए है ?यह भी कम महत्व पूर्ण नहीं है की उन्होंने उस वंशवाद की राजनीति को खुली चुनती देते हुए अपनी आवाज़ बुलंद की, जो आपातकाल से लेकर आजतक गैर कांग्रेसी दलों का एक प्रमुख मुद्दा है। उनका सीधा संघर्ष तो कांग्रेस के खिलाफ ही शुरू हुआ और बहुत कम समय में ही एक क्रांतिकारी परिवर्तन की शुरुआत हुई। नौकरशाही का रवैया तो पहले ही स्पष्ट है मगर देश को सुधारने का दम भरने वाले केवल राजनीतिक चश्मे से ही देख रहे हैं। नरेंद्र मोदी यदि देश के प्रधानमंत्री बन भी गए तो शासन बदलेगा,सोच और व्यवस्था नहीं। किसी सांसद या जनप्रतिनिधि की हैसियत या अधिकारों में कोई इजाफा नहीं होने वाला। मैंने मंत्रियों और सांसदों और विधयाकों को अफसरों और मंत्रियों और मुख्यमन्त्रियों के आगे गिडगिडाते देखा है। उनकी लाचारी और बेबसी पर चुप्पी देखी है।
 आधी सदी से ज्यादा के बिगड़े हुए तंत्र पर शासन करते हुए भी जो लोग उसमे खामियों की बात छोड़िये उसमे पैदा हो रही दमघोटूं सड़न को तक नहीं रोक पा रहे थे, आज केजरीवाद के पीछे की सोच से उनकी भी नाइत्तफाकी नहीं है। बस इतनी सी तो बात है कि केजरीवाल ने जिस कांग्रेस के खिलाफ आवाज़ उठायी उसी के समर्थन से उन्होंने साकार बना ली। मगर वह सरकार जैसे दिखने के लियए बेताब नहीं हैं ,और भले  ही समर्थन लेने के पीछे हुयी आलोचना में यह तर्क दिया गया कि वह सरकार बनाने के लिए लालयित थे ,इसीलिये उन्होंने कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल कर ली। कंग्रेस हो या भाजपा या किसी राज्य में राज कर रहे क्षेत्रीय दल उनकी केंद्र सरकार के आगे लाचारी और केंद्र में प्रधानमन्त्री के आगे केंद्रीय मंत्रियों की लाचारी और राज्यों में मुख्यमंत्री के आगे मंत्रियों की लाचारी और बौनापन किसी भी बड़े से बड़े और लोकप्रिय जननेता से सुना जा सकता है। इस हालत के आगे स्थानीय निकायों और ग्राम स्तर की इकाइयों की तो बात ही करना बेकार है। फिर नौकरशाही  के आगे सरकार की बेबसी का दर्द कोई इसलिए बयान नहीं करता क्योकि जिस झूठी शान के बूते पर राज किया जा रहा है वह भी नहीं बचेगी। राष्ट्र हित  गोपनीयता संविधान और दलीय निष्ठा के आगे लाचार लोकतंत्र हमेशा गिडगिडाता ही रहा है।
खिर केजरीवाल की सोच और नियत को भांपकर कांग्रेस और भाजपा ने अपनी रणनीति और तौर तरीकों में बदलाव तो किया ही है। इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आमआदमी की पीड़ा से केवल राजनीतिक दल के अलावा  बाकि नागरिक ही प्रभावित होते हैं?पार्टियों के नेता और कार्यकर्ता आखिर उन सारी  परेशानियों से बाबस्ता रहते हैं जिसके खिलाफ केजरीवाद का उदय हुआ है। केजरीवाद ने  एक हौसला तो पैदा किया ही है, जो कुछ नहीं कर सकता तो इतना तो करेगा ही कि जिन विषयों पर बड़े से बड़ा नेता मंत्री तक बोलने से कतराता था आज उसके भीतर एक हौसला पैदा हुआ है और निश्चित तौर पर उम्मीद बनी है कि अब कम से कम वह सब होना मुश्किल होगा जो संविधान के नाम पर आम आदमी से लेकर सबको बेजुबान बनाता था।  
मौजूदा पेड़ न्यूज़ के दौर में अब जमीनी हकीकत से सभी दूर हैं। कार्पोरेट दौर है।  मीडिया भी और पार्टियां भे कार्पोरेट। जैसे मीडिया के लोगों ने समझोते करके दिहाड़ी मजदूर से भी बदतर हालत में काम करना स्वीकार किया है, वैसे ही राजनीतिक दलों में भी अब यह प्रवृत्ति गहरे तक घुस गयी है। यही प्रवृत्ति जहाँ मीडिया को किसी भी हद गिराने में कामयाब हुई है, वहीँ अब इसका दूसरा शिकार देश के राजनीतिक दल होने जा रहे हैं जहां अभी से अमरीका और जापान के लोग उनके अभियानों का संचालन करने जा रहे हैं। आने वाले समय में यह प्रवृत्ति किस कदर घातक होने वाली है जिसका अंदाज़ लगना मुश्किल है ,इसके खिलाफ बोलना या अपनी राय  देना और भी घातक। यह बात अभी से ही राजनीतिक दलों के भीतर बहुत बड़ा मुद्दा है, मगर इस पर मुह खोलने का विचार भी आत्मघाती है,यह सोच आने वाले कल के लिए जूझने के आत्मबल को अभी से कमजोर कर रही है।
समें दो राय नहीं कि अरविन्द केजरीवाल के पास सरकार तो बड़ी बात ,है राजनीतिक व्यवहार का तज़ुर्बा नाम की चीज नहीं है। हो भी नहीं सकती। मगर उनके पास एक विचार तो है और ऐसा विचार कि जिसने सभी को  अपनी सोच बदलने  के लिए न केवल मजबूर कर दिया बल्कि हताश और निराश समाज में एक हौसला पैदा करने वाला काम किया है।  केजरीवाल की सोच से किस-किस के समीकरण बिगड़ गए और किसी के लिए सत्ता का रास्ता कितना मुश्किल हो गया हो  मगर इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए कि केजरीवाल ने कांग्रेस हो या बीजेपी ,उनके असंतुष्टों के लिए एक नया रास्ता तैयार कर दिया है। नया घर तैयार कर दिया है और एक घबराहट भी,क्योंकि अब सबको अपनों के खिलाफ सोचते और कुछ करते समय डूबते जहाज़ कांग्रेस से जितनी बेफिक्री थी अब उतनी ही बड़ी तस्वीर उन्हें "आप " दिखायी तो देती ही है।
शय भीतर घात से है और वो अभी भी इस कदर बनी हुयी है, इसका सबस बड़ा नुक्सान केवल और केवल भाजपा को ही होना है। दिलों की दूरियां अभी उतनी ही गहरीं है जितनी थीं। उन्हें पाटने का प्रायस सिर्फ मोदी की आँधी से ही हो रहा है,मगर हकीकत में यह आंधी दिलों को दूर करेगी ,दूरियों को नहीं। कांग्रेस से ज्यादा यह हालत आज भाजपा में है। अगले लोकसभा चुनाव की तस्वीर चाहे कैसी भी हो मगर उसकी झलक अभी से दिखा दिखा कर जनमानस में दिलों दिमाग में बिठाने कि कोशिश  की जा रही है। इस कोशिश  में खुद की तस्वीर में पड़े दाग और गहरे हो रहे हैं ,जो उभरे हुए होने के बावजूद मिटाने की कोशिश नहीं की जा रही है।
ब कुछ बदला हुआ है। पहले जहां मीडिया से एक खतरा होता था कि कभी  सच लिखेगा और हकीकत सामने आएगी। मुद्दे उठेंगे और बहस होगी फिर जनमत आएगा। मगर अब ऐसा कुछ नहीं है। पेड़ मीडिया के दौर में आज मीडिया कि स्थिति उस भांड जैसी है जो किसी के भी दरवाज़े पर नाच गाकर आने में दो मिनट नहीं सोचने वाला और  इस मीडिया को यह भी शर्म लिहाज़ नहीं बची है कि उसने कल क्या छापा था। और अगले दिन ठीक उसके उलट कुछ भी छाप  देने या दिखा देने से उसकी खुद की विश्वसनीयता कितनी बचेगी या खतम हो गयी है?यानि अपत्यक्ष रूप से मीडिया यह मान चुका है कि अब उसे अपनी विश्वसनीयता की परवाह नहीं करनी है -शायद इसी विचार को आत्मसात करके मीडिया में पेड़ न्यूज़ का दौर अभी से चल पड़ा है। काले अक्षरों में बीके हुए जमीर साफ़ पढ़े जा रहें हैं।
खबारों ने अभी से सौदे कर लिए हैं। सम्भावित उम्मीदवार या मौजूदा सांसद टिकट की आस में बेधड़क छप रहे हैं। अखबारों का हकीकत से वास्ता नाता ख़त्म हो गया है। उन्हें सिर्फ किसी के पक्ष में छापना है। इस हद तक छापना है कि पेड़ न्यूज  के लिए पैसे देने वाला चाहिए तो उसके विरोधी की बात नहीं छपेगी। एक तरफ़ा राज। एक ही बात। अब इस पर कोई क्यों एतराज़ करे और करे भी तो किससे ?केजरीवाल ने इस मोर्चे पर भी काम शुरू करके भारत में मीडिया को भी कठघरे में खड़ा किया जो एक ऐसा कदम है जिसकी आलोचना उनके विरोधी भी नहीं करेंगे। बरसों से इस देश में मीडिया को मैनेज करके नीतियों सिद्धांतों और कानून की बली चढ़ाई जा रही है।
कनीकी विकास के दौर में जहां मीडिया का जबर्दस्त विकास हुआ वहीँ "मीडिया आज एक बिकाऊ माल की तरह बाज़ार में  है जो किसी भी दाम पर बिकने को तैयार है। मीडिया घरानों के सौदे हो हो रहे हैं ,हो चुके हैं राजधानियों से लेकर गली मुहल्लों तक। ऐसे में अगर केजरीवाल इसके खिलाफ भी आवाज़ उठा रहें हैं और आम जन को कम से कम इतना तो हौसला दे रहे हैं कि देश से बड़ा कोई नहीं है।" किसी को आम आदमी और देश को गिरवीं रख लेने का अधिकार नहीं है ,अब इस हौसले को किस हद तक कुचला जायेगा और कितना बल दिया जायेगा यह हमारे नीति नियामकों की नियत पर निर्भर है। आज के दौर में अभिव्यक्ति  की स्वतंत्रता का मतलब वही है जो संविधान में कल्पना की गयी थी या नहीं इस पर फिर से सोचने का वक्त आ गया है ,अरविंद केजरीवाल की बात को ऐसे ही हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। बाक़ी तो  'समरथ को नहीं दोष गुसाईं!'

-आशीष अग्रवाल 

लुधियाना से श्री प्रदीप ठाकुर ने बेबाक प्रतिक्रया दी है ,
जो मुझे तीन फरवरी को ईमेल से मिली है- प्रस्तुत है 

बहुत खूब! जबरदस्त विश्लेषण!! सटीक आकलन!!! 

बस यूं ही भड़ास पर चला गया था, और इस शीर्षक पर नजर चली गई.आलेख थोडा लंबा जरूर था, लेकिन उबाऊ कतई नहीं. विषय की व्यापकता को समझाने के लिए इतना लंबा जाना तो लाजमी था. बड़े दिनों बाद फालतू पढने में खर्च हुए समय का अफ़सोस नहीं हुआ; बल्कि यह लगा कि पाठक बने रहना जरूरी है, और फालतू समय खर्च करना भी जरूरी है.खैर,

 मैं आशीष अग्रवाल का भूत-वर्तमान नहीं जानता, बस केजरी'काल' शीर्षक देख जिज्ञासा हुई थी, और पढता चला गया. बर्ना तथाकथिक दिग्गजों के लेखों के आर-पार जाने के लिए पढने की जरूरत ही कहां पड़ती है.आप का आलेख पढ़कर यह भी लगा कि एक बार फिर से भारत बदलने जा रहा है, और आने वाले युग को केजरी काल ही कहना पड़ेगा. समाज बदलेगा तो सत्ता की चूलें हिलेंगी, बाजार भी बदलेगा और उसके पीछे-पीछे समाचार (बाजार) पत्र/चैनलों को भी बदलना पड़ेगा. 

हां, यह अफ़सोस जरूर है कि जब देश व समाज के एक बड़े तबके को पारंपरिक मीडिया के मार्गदर्शन की सबसे जरूरत थी, वह इस बड़ी जिम्मेवारी को संभाल पाने के काबिल नहीं रहा है. खैर, वैकल्पिक मीडिया तो है! किसी अख़बार या चैनल ने मुझे आप तक नहीं पहुंचाया. मै यह भी कह सकता हूँ कि मेरी आकुलता ने ही मुझे आपके विचार पढने को उकसाया, और मैंने उस पर प्रतिक्रिया जताना भी इसलिए जरूरी समझा कि पता नहीं कितने आशीष अग्रवाल कितने माध्यमों से कहां-कहां पहुंच पा रहा है.

जी आशीष जी

 देश बदल रहा, मगर चुपके-चुपके.
मेरा परिचय लेना भी जरूरी नहीं...
मैं भी आम जनता का ही हिस्सा हूं...
अब तो आम जनता होना भी खेमेबाजी के दायरे में आता जा रहा है. बस इसी से घबराता हूँ! लेकिन कब तक?

आपके लेख की तरह मेरी प्रतिक्रिया भी लंबी हो गई.बहुत बहुत साधुवाद! 

प्रदीप ठाकुर