सन 2007 की बात है। देहरादून से साइडस्टोरी पत्रिका का मासिक प्रकाशन चल रहा था। अक्सर खाली समय में और वैसे भी नॉटियल जी पास जाना होता था। एक बार मैं जैसे ही उनके घर पहुंचा ,वह कहीं से आये थे। बोले आज २५ दिसंबर है.. हम लोग जो बीएचयू से पढ़े हुए हैं अपने काम धाम से निपट आये हैं ,हर साल २५ दिस्मबर को महामना मदन मोहन मालवीय जी की जयंती मनाते हैं। आज मैंने भी उसमें भाषण दिया और अपने संस्मरण सुनाये। आपको लिखाकर दूंगा ,अपनी पत्रिका में छापिएगा। बस एक दो दिन बाद नौटियाल जी का फोन आया बोले -आज आपको चाय पीनी है मैंने बोला दस मिनट में हाजिर हुआ। तब यह स्मृतियाँ उन्होंने सुनाई और मैं नोट करता गया। फिर लेखबद्ध करने के बाद उनके ही पास छोड़ दीं की वे उसे एक बार देख लें ,जो चाहे सुधार कर सकें। वही स्मृतियाँ अभी थोड़े दिन पहले मेरे कागज़ों में निकल आयीं। -आशीष अग्रवाल
(25 दिसंबर पंडित मदनमोहन मालवीय के जन्मदिवस के अवसर पर)
महान साहित्यकार पूर्व विधायक स्व. विद्या सागर नौटियाल |
एक बार मालवीय जी किसी तरह एक रिसायत के नवाब के दरबार में जा पहुँचे । नवाब उन्हें देखते ही गुस्से में भर गए और उनके हाजिर होने का मकसद पूछा । यह पता लगने पर कि वे काशी हिंदू विष्वविद्यालय की स्थापना करने के लिए कुछ आर्थिक अनुदान की याचना कर रहे हैं नवाब ने अपने पाँव से जूती निकाली और उनकी ओर फेंक दी । कहा हमारी ओर से यही दान है । मालवीयजी ने भरे दरबार में उछाली गई जूती बहुत शांत भाव से जमीन से उठा कर अपने हाथ में ले ली और आदरपूर्वक उसे एक कपड़े में लपेट लिया । जूती को लेकर वे दरबार की सीमाओं से बाहर निकल आए । तब मालवीयजी आम प्रजा के बीच हर नुक्कड़ च राहे पर इस बात का ऐलान करने लगे कि कल दिन के मौके पर नवाब साहब के पाँव से उतारी गई जूती की सरेआम नीलामी की जाएगी । लपेटी गई उस जूती के कपड़े को भी वे लोगों को दिखाने लगते कि इसके अंदर जूती है जिसे हुजूर ने खुद अपने हाथ से उतार कर हमें देने की मेहरबानी बख्षी है। ष्कल नवाब हुजूर की यह जूती नीलाम किया जाएगा। नवाब तक भी यह खबर पहुँची । अपनी भूल के लिए माफी माँगते हुए उसने मालवीयजी महाराज को अपनी ओर से समुचित दान देकर आदरपूर्वक विदा किया ।
आपने क्या कभी इस बात की कल्पना की है कि भारत की गुलामी के उस अंधकारपूर्ण युग में यह कैसे संभव कैसे हुआ कि बी0एच0यू0 में सिर्फ इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं खोला गया बल्कि तकनीकी विज्ञानों की कुल शाखाओं उपशाखाओं की भी स्थापना कर दी गई। हमारे कुलपिता भविष्यदृष्टा थे । वे देख रहे थे कि एक न एक दिन अंग्रेज को भारत छोड़ कर जाना ही पड़ेगा । वे बी0एच0यू0 में लगातार उसशुभ दिन की तैयारी करते रहते थे। उन्होंने इंजीनियािंग की तीनों शाखाओं,सिविल मैकेनिकल और इलैक्ट्रिकल की शिक्षा की व्यवस्था के लिए इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना की जिसे बनारस इंजीनियरिंग कॉलेजद्ध कहते हैं । और उसके अलावा कॉलज ऑफ़ टेक्नोलॉजी भी खोल दिया जिसमें उस पिछड़े दौर में ग्लास और सिरेमिक्स जैसे विषयों के अध्ययन की व्यवस्था भी कर दी गई थी । और सिर्फ उतना ही नहीं , माइनिंग मेटलर्जी जैसे विषय की शिक्षा के बारे में उस ज़माने में कोई सोच भी नहीं सकता था । मालवीयजी महाराज ने एक अलग कॉलेज की स्थापना मात्र उसी विषय के लिए कर दी थी । कृषि के क्षेत्र में देश पीछे न रहे, इसके लिए कॉलेज ऑफ़ ऐग्रीकल्चर भी खोला गया । डा0शांति स्वरुप भटनागर ने कुलगीत की रचना करते हुए उन समस्त विषयों का समावेश करने की कोशिश की ।
मालवीयजी को जानकारी रहती थी कि विदेशों में भारत के कौन कौन नवयुवक कहाँ अध्ययन करने गए हैं। तब वायुयान चलते नहीं थे । कुल विदेश यात्राएं समुद्री जहाजों से ही हुआ करती थीं । वर्षों के बाद कोई नवयुवक विदेष से अध्ययन करके लौट रहा है । कस्टम क्लियरेंस के बाद वह अपने सामान असबाब के साथ गोदी पर बाहर निकला है । पगड़ी लगाएश्वेत वस्त्रधारी मदनमोहन मालवीय उसे आशीर्वाद दे रहे हैं । 'कहाँ जाओगे वत्स ? घर जाऊँगा महाराज ।मैं तुम्हें लिवा लाने आया हूँ बेटा । तुम पहले मेरे साथ बनारस चलो ।अब कहिए ! मदनमोहन मालवीय जिसे स्वयं लिवा लाने आए हैं उस नौजवान की जुर्रत कि कोई बहानेबाजी कर उनके साथ चलने से मना कर दे वह चुपचाप साथ हो लेता है।अपनी मंजिल पर पहुँचने से पहले उसकी यात्रा में एक पड़ाव और बढ़ गया है । बम्बई से बनारस ।
बी0एच0यू0 के किसी कमरे के अंदर सेलेक्शन कमेटी की मीटिंग चल रही है । बम्बई से मालवीय जी विदेश यात्रा से भारत लौटे जिस नवयुवक को अपने साथ बनारस लिवा लाए वह उस कमरे के बाहर एक बेंच पर बैठा है । बम्बई से बनारस के लिए प्रस्थान करने से पूर्व मालवीयजी ने तार द्वारा यह निर्देश भेज दिया था कि सेलेक्शन कमेटी की बैठक बुलाई जाय । कुछ ही देर के बाद बाहर बैठे विद्वान के हाथ में एक नियुक्ति पत्र थमा दिया जाता है । तुम कल ज्वाइन कर लो और फिर दो एक दिनों के बाद छुट्टी लेकर अपने घर चले जाना ।
नवयुवक वैज्ञानिक के नियुक्तिपत्र में जो वेतन मान लिखा गया है वह किसी डिग्री कॉलेज के लेक्चरर के वेतनमान से भो कम है ।नवयुवक के घर पहुँचते ही परिवार के तमाम सदस्य सकते में आ गए हैं । परिवार के मुखिया ने अगले ही दिन बनारस का टिकट कटवा लिया है ।
महाराज ! हमारे साथ न्याय किया जाय । हमारा कुनबा बर्बाद हो जाएगा ।आपके बेटे को देशसेवा करने का स्वर्णिम अवसर मिल रहा है मित्र ! महाराज इनका का खर्चा उठाने की हमारी अकेली की हिम्मत नहीं थी । हम दुस्साहस कर बैठे । इनकी शीसखा के लिए हमने खुद को अपनेरिश्तेदारों का भी बंधक बनवा दिया ।मातापिता की सेवा करने के अतिरिक्त पुत्र को गुरुऋण भी देना होता है मित्र। हम गुरुदक्षिणा के रूप में आपसे समाजसेवा की याचना कर रहे हैं । हम उसे कोई वेतन नहीं दे रहे हैं मात्र जीवन निर्वाह व्यय की व्यवस्था कर सकते हैं ।चिरंजीव के पिता मुँह लटकाए घर लौट आए हैं ।
यह मात्र एक उदाहरण है ! मालवीय जी पूरे देश के वैज्ञानिकों ्रविशेषज्ञों,उद्भट विद्वानों को अपनी अद्भुत चमक से ऐसे ही बी0एच0यू0 में खींच लाते थे हमारे । मदनमोहन मालवीय के रूप में काशी में एक ऐसा चुम्बक स्थापित हो गया था कि देश भर के विद्वान उन की ओर खुद ही खिंचे चले आते थे । धन कमाने की लालसा से नहीं ज्ञान विज्ञान की उपलब्धियों के द्वारा इस देश की सेवा करने का व्रत अपने हृदय में धारण किए हुए । डा0 विजय गैरोला , हमारे अध्यक्ष कर्नल के0एन0राय और दूसरे वक्ताओं ने महामना और बी0एचच0यू0 के बारे में अपने संस्मरण आपको सुनाए हैं । विजय का जन्म बी0एच0यू0 में हुआ था। वे प्रो0 शशिशेखरानन् गैरोला के पुत्र हैं । इसलिए उनके संस्मरणों की ताजग़ी निराली थी । मैं उन्हें दुहराऊँगा नहीं । इस वक्त मुझे एक दूसरा प्रसंग याद आ रहा है ।
कलकत्ता काँग्रेस अधिवेश न में एक उत्साही नवयुवक रूस्तम सैटिन को स्वयंसेवक के रूप में काम करते हुए देख महामना का ध्यान उसकी ओरआकर्षित हुआ । अधिवेश न की समाप्ति के बाद महामना ने उसके बारे में जानकारी लेनी चाही । मालूम हुआ कि बम्बई में सैटिन की कोठी के ख्याति प्राप्त मालिक रूस्तम के पारसी पिता ने बेटे के काँग्रेसी कार्यक्रमों में सम्मिलित होने के अपराध में घबड़ा कर उन्हें घर से निकाल दिया है। अंग्रेज सरकार के विरोध करने की बात व्यवसायी धनाढ्य पिता सोच भी नहीं सकते थे । उन्हें अपना व्यापार, पुत्र से अधिक महत्वपूर्ण और प्रिय लगता था । कुछ ही दिनों बाद कलकत्ता में काँग्रेस काअधिवेशन होने जा रहा था । घर से निकाल दिए जाने के बाद रूस्तम अधिवेशन में स्वयंसेवक बन कर चले गए ।अधिवेषन तो खत्म हो गया है । अब कहाँ जाआगे बेटे? मालवीय जजी ने पूछा यह तो अभी सोचा नहीं है । उधर से मायूस सा जवाब आया !
तुम मेरे साथ चलो बेटे । तुम्हें पहले अपनी शिक्षा पूरी करनी चाहिए ।
महामना की बात सुन कर रूस्तम कुछ सोच में पड़ गए ।तुम चिंता मत करो बेटे ।विश्वविद्यालय में तुम्हें कोई खर्चा नहीं करना पड़ेगा ।कोई फीस नहीं । कमरे का कोई किराया नहीं । ऊपर से छात्रवृत्ति ,जिससे जेबखर्च निकल आएगा। वे रूस्तम सैटिन कम्युनिस्ट थे । मालवीय जी को उस बात की भी जानकारी थी । अनीश्वरवादी । पूँजीवादी प्रथा और ज़मींदारों के घोषित दुश्मन । और महामना के एक प्रिय पुत्र और कृपापात्र । एक दिन रूस्तम ने कभी मुझे यह बात सुनाई थी , जिसे मैं मैंने आपके सामने बयान किया। एक दिन रूस्तम महामना को बी0एच0यू0 के निर्माण में पूँजीपतियों राजा नवाब , ज़मींदारों और उनके सहयोग के बारे में अपने कागजी ज्ञान का उच्छवास सुनाने लगे ।
पिता जी ! ये राजे नवाब अपनी रियासतों की प्रजा को उत्पीडि़त कर हराम की कमाई करते रहते हैं । गरीबों को सता सत्ता कर अपनी तिजोरियाँ भरते रहते है । उस कमाई की बदौलत वे ऐशोआराम करते हैं । वह पैसा उनके दर्व्यसनो पर खर्च होता है । दुखी प्रजा को सता कर उनसे जबरन वसूल किए गए उस हराम के पैसे से ही तो आपने विश्वविद्यालय की स्थापना की है। हाँ रूस्तम ! यह गलती मुझसे हो ही गई । वे उस पैसे को अपने ऐशोआराम दुर्व्यसनों पर उड़ा देते, मैं उसे माँग कर तुम लोगों के लिए लेता आया ।महामना द्वारा निजी मान अपमान की परवाह न कर मांग मांग कर लाई गई उन्हीं धनराशियों के सहारे बी0एच0यू0 के काम चलते रहे । भयंकर आर्थिक तंगी के बावजूद उदारमना महामना अपने कुलपुत्रों को हर संकट से उबारने में व्यस्त रहते थे । उनकी उदारता के फलस्वरूप गऱीब झोपडिय़ों के अनेक साधनहीन निहंग छात्र भी विश्वविद्यालय तक जा सके. ।
इसी बीच एक परेशान छात्र ने महामना से अपनी परेशानी बयान की है ।फीस का भुगतान किए बग़ैर हमें परीक्षा से रोका जा रहा है ।उसका बयान सुन कर महामना द्रवित हो गए हैं । उन्होंने सेंट्रल आफिस के लिए लिख कर दे दिया है ।इस छात्र को परीक्षा से न रोका जाय । यह फीस इम्तहान के बाद दे देगा । आदेश को देख कर सेंट्रल ऑफिस परेशानी में पड़ गया है ।यही की परीक्षा के बाद आज तक किसी ने फीस दी भी है भला ?परीक्षा के बाद अपने ज्ञान के आधार पर देश की सेचा करके वह निर्धन छात्र आजीवन फीस अदा करता रहेगा। महामना के इस विशाल दर्शन को इस बात को सेंट्रल आफिस नहीं जान सकता था, अपने अन्तर्मन में महामना जानते थे । अगर कोई निर्धन छात्र धन के अभाव में फाइनल परीक्षा से ही वंचित कर दिया जाएगा तो बी0एच0यू0 किसके लिए बनाया गया है घ्
मेरा मानना था की मालवीयजी एक अलग किस्म का निराला विश्वविद्यालय खोलना चाहते थे । उनके हृदय में देश की आज़ादी की ललक थी । वे बी0एच0यू0 से प्रतिवर्ष गुलामी की व्यवस्था को अक्षुण्ण रखने वाले स्नातकों की भीड़ नहीं निकालना चाहते थे । उनकी हार्दिक तमन्ना यह रहती थी कि बी0एच0यू0 के स्नातक, समाज में पहुँचकर अपनी क्षमताओं का उपयोगदेश सेवा के कार्यों में लगें । यहाँ पर आपके सामने इस बात का अंतर स्पष्ट हो जाएगा कि बी0एच0यू0 के अधिकांश छात्र सिविल सर्विसेज़ की ओर क्यों नहीं लपकते थे । अंग्रेजी भारत में जिनका रूझान प्रतियोगिता परीक्षाओं की ओर होता था वे प्रयाग विष्वविद्यालय में दाखिला ले लेते थे । बी0एच0यू0 में दूसरी किस्म के छात्रों को तैयार किया जा रहा था । उसका पता उस दिन लगा जब भारत की स्वतंत्रता की शुभ बेला आ पहुँची । देश में मौजूद तमाम विद्युतगृहों से लेकर प्रतिष्ठानों तक के शीर्ष पदों से अंग्रेज ऑफीसर इंजीनियर और तकनीकी अधिकारी हटते चले गए और उनके खाली स्थानों पर बी0एच0यू0 के स्नातक तैनात हो गए । अपने समस्त प्रतिष्ठानों के चक्कों को पूर्ववत् चलता देख देश के अंदर एक नया आत्मविष्वास जाग उठा । ये थी मालवीयजी की देशभक्ति , ये उनका साहस ये उनकी शक्ति ।बरबस ही एक बार फिर कुलगीत याद करें!
मैं देख रहा हूँ कि देहरादून के निवास कर रहे हमारे पूर्व छात्रों में आज यहाँ पर काफी लोग नहीं आ पाए हैं । मुझे विशवास है कि अगले समारोह के अवसर पर हमारी संख्या में पर्याप्त वृद्धि हो जाएगी । हिंदू नेनेशनल इंटर कॉलेज देहरादून के प्रति हमें यहाँ पर एकत्र होने की अनुमति देने के अवसर और सुविधा प्रदान करने के लिए मैं अपनी ओर से भी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ ।